Thursday, October 30, 2008

INSPIRATION







प्रेरणा/पकोड़ा !


डाँ। माथुर को आज क्लिनिक आधा घन्टा देरी से जाना था, सुनीता  का यही आग्रह था। तीन कप चाय और 8-10 पकौड़े बनाने के सम्बंध में जितनी चिन्तित सुनीता दिखी,उससे डाँ माथुर के आश्चर्य में वृद्धि ही हुई। उसे ये बात तो समझ में रही थी कि सुनीता  के साहित्य लेखन का प्रेरक आज पहली बार घर पर रहा था, बल्कि डाँ माथुर ही के आग्रह पर सुनीता ने उसे आज नाश्ते पर निमंत्रण दिया था। आठ बजने में यानि निश्चित समय में अभी पन्द्रह मिनट बाकी थे। घण्टी बजी, सुनीता  सहज ही दरवाज़े की तरफ़ लपकी……दूध वाला था। डाँ माथुर मन में बोले ये तो मेरी प्रेरक वस्तु लाया! दो मिनिट बाद पुन: घन्टी बजी, सुनिता उठते-उठते रह गयी, फ़ोन की घन्टी थी, किसी मरीज़ के फ़ोन की। आठ में पांच कम पर पुण: दरवाज़े की घंटी बजी। डाँक्टर ने अब उठना अपनी ज़िम्मेदारी समझा--सब्ज़ी वाला था, डाँ माथुर उसे क्लिनिक पर मिलने का कहने ही वाले थे कि सुनीता आगे बढ़ कर बोल पड़ी, "आईय-आईये" डाँ माथुर ने आश्चर्य चकित भाव से सुनीता को देखा! नयी वेश-भूषा में सुसज्जित आगन्तुक को सोफ़े पर बैठाते हुए पति से बोली,
"आप है श्री राजेश कुमार्।" नमस्ते का आदान-प्रादान हुआ। "चकित हुए ना", अब सुनीता पति से संबोधित थी। "आठवीं तक राजेश मेरा  सह्पाठी रहा है, मेरा कलम दोबारा कुछ रचता अगर इसने उस निबंध प्रतियोगिता में मेरा होसला बढ़ाया होता, जब क्लास के सारे बच्चे हँस पड़े थे और राजू अकेला ताली बजा रहा था; इतनी ज़ोर से कि सब की हँसी दब गयी।" "किस बात पर?" के जवाब में सुनीता ने बताया कि वह हड़बड़ाहट मेंबंदर-अदरक’ वाला मुहावरा उल्टा बोल गयी थी।
सब्ज़ी की ठेला गाड़ी पर खड़े-खड़े ग्लास से चाय पीने के आदी राजेश को कीमती चाइनीज़ कप-सॉसर थामने के लिये दोनो हाथ व्यस्त रखते हुए चाय पीने का मज़ा कम ही रहा था। उस कीमती वस्तु को संभालने की कौशिश में उसके हाथो की हल्की सी कंपन और उससे उत्पन्न संगीत डाँ माथुर का धयान आकर्षित किये बग़ैर रह सकी। डाँक्टर माथुर को सुनीता की प्रेरणा ने शायद निराश ही किया था। उनकी कल्पना में उच्च स्तर की साहित्य रचने वाली उसकी पत्नी का 'प्रेरक' [या प्रेमी] भी कोई 'शाह्कार' ही होगा मगर यह ठेले पर सब्ज़ी बेचने वाला राजू ?, शाकाहार निकला। किसी भी सूरत उनके गले नही उतर रहा था। चाय का आखरी घूंट गले से उतारते हुए डाँ माथुर ने यह सोचा फ़िर उस तीखी हरी मिर्च का वह टुकड़ा जो पहले इन्होने अपने पकोड़े में से निकाल लिया था, उठा कर चबा लिया! चाय की मिठास प्रेरणा के इस अनुपयुक्त लगे पात्र के प्रसंग से उत्पन्न कड़वाहट को दबाने के लिये?
अब डाँ माथुर पर अन्तर्मन से यह दबाव भी था कि घर आये मेहमान से कुछ बातें भी करे, औपचारिक ही सही, आखिरकार एक सवाल बना ही लिया- "राजेशजी आप को साहित्य में तो रूचि होगी ही? "जी हाँ, मै ब्लाँग लिखता हुँ। ''अरे,  बापरे!'' यह बोलते हुए अपना सिर थामने के लिये डाँ माथुर ने अपने दोनो हाथ उपर तो उठाये मगर सुनीता  से नज़र मिलते ही उसके डर से या सज्जनता वश, अपने उठे हुए हाथो को बाल संवारने के काम में लाते हुए वापस टेबल पर ले आये, धीरेसे। राजेश ख़ामोश ही रहा, उसको शायद डाँ साहब की आश्चर्य मिश्रित टिप्पणी समझ में नही आयी थी। इधर, सुनीता को यह अच्छा लग रहा था कि डाँ माथुर ने स्वयं ही राजेश से बात की शुरुआत की, अब वह निश्चिंत थी कि उसे अधिक बोलना नही पड़ेगा! सुनीता की नज़रों में अपने लिये प्रसंशा देख, डाँ माथुर ने ख़ुद ही बात आगे बढ़ाई, "क्या प्रिय विषय है आपका?"  ''सहकार'' राजेश ने उत्तर दिया, "यही सोचता हूँ, यही लिखता हूँ, यही जीता हूँ।
एक तरफ़ तो डाँ माथुर राजेश की इस दार्शनिक सोच पर चकित थे, दूसरी तरफ़ उनका दिमाग़ शब्दों की दूसरी ही गणित में उलझा हुआ था। वह मन ही मन दुहरा रहे थे---शाहकार- शाकाहार- सह्कार ! वह बोल भी पड़ते, सुनीता के गुस्से का डर होता तो। इस उधेड़-बुन में अगला सवाल यही बन पड़ा कि छपवाते कहाँ हो? "कही नही, ख़ुद के लिये लिखता हूँ, ख़ुद ही पढ़ता हूँ।" , राजेश का विनम्र जवाब था। अब सुनीता पहली बार बोली, "अरे! राजेश, तुमने पहले कभी बताया नही?''
राजेश का जवाब लम्बा हो यह सोचते हुए, उसके उत्तर देने से पहले ही डाँ माथुर ने जैसे आख़री सवाल के तौर पर पूछ लिया, "भाई कुछ सुनाते भी जाओ।
"आपका आग्रह है तो सुनिये:-
ज़िन्दगी गर नाव है तो,
हो सके पतवार बन जा,
शाहकारो की बहुलता,
हो सके 'सह्कार' बन जा।“
'बहुत बढ़िया' का कमेन्ट देते हुए डाँ माथुर पानी के बहाने उठ खड़े हुए, राजेश ने भी आझा चाह ली, सुनीता बचे हुए एक पकोड़े पर हाथ साफ़ कर रही थी।
-मन्सूर अली हाशमी

Saturday, October 25, 2008

अथ श्री बन्दर कथा

अथ श्री बन्दर कथा

नित्यानुसार आज भी अपने घर की छत पर बैठा ब्लाँग रच रहा था कि बहुत दिनो बाद बंदर-दर्शन हुए।
समीर लालजी(उड़न तश्तरी)  की 'अथ श्री बंदर कथा' के बाद से ही यह ग़ायब था। मैं आशचर्य चकित हुवा उसके हाथ में काग़ज़-कलम देख कर! और सह्सा संबोधित भी कर बैठा, मानव जान कर; घोर आश्चर्य में पड़ गया उससे जवाब सुन कर्…………वार्तालाप प्रस्तुत है:-

हाश्मी:- कहाँ थे इतने दिन?
बंदर;- पाठशाला।
हाश्मी:- तो तुम लिखना-पड़ना सीख आए?
बंदर:- ज़रूरी था।
हाश्मी;- क्या ज़रूरत पड़ गयी?
बंदर:- मानवीय हमलो से बचाव के लिये जागरुकता आवश्यक है।
हाश्मी:- कैसा हमला? बंदर: पत्थरोँ की मार से बचने की क्षमता तो प्रकर्ति ने दी है हमे, मगर मानव अब हम पर शाब्दिक बाण चला रहा है। हाश्मी: किस तरह? बंदर: हम बंदरो को दस-दस रूपये में
ख़रीदने-बेचने की वस्तु की तरह प्रचारित कर रहा है।
हाश्मी: ओह! समीर लालजी।
बदर: कौन से लाल? नाम सुना हुवा लगता है, हम में भी कुछ लाल-लाल होते है…
हाश्मी: कुछ नही, मगर तुम लिख क्या रहे हो?
बंदर: बंदरलाँग और क्या, ईंट का जवाब अब पत्थर से ही देना पड़ेगा। [अब मुझे कुछ-कुछ समझ में आने लगा कि मामला क्या है]
हाश्मी: क्या लिख रहे हो सुनाओ…… मैं छपवा दूंगा!
बंदर: अवश्य, इसीलिये तो मैं यहाँ बैठ कर लिख रहा हूँ………सुनो… शीर्षक है … "अथ श्री मानव कथा",…।
''मनुष्य भी बड़ा अजीब प्राणी है, कभी हम बंदरो को अपना पूर्वज मानता है, कभी देवता स्वरूप जान हमारी पूजा करता है तो कभी हमे पत्थर मारता है। पूजा तो हम भी 'डारविन' की करते है जिसने हमें महिमा मंडित किया, मगर हमने तो कभी पत्थर नही मारा टाई बांधने वालो को [पीछे की चीज़ आगे लगाताहै, नकल करना
भी बराबर नही सीखा]। कभी ''मुंह चिढ़ाने'' के हमारे एकाधिकार का हनण करता है तो कभी दीवार और वृक्ष लांघने के हमारे मौलिक अधिकार का उपयोग बग़ैर अनुग्रहीत हुए करने लगता है। इनकी आबादी बढ़ना ही हमारी आबादी घटने का कारण बन गया है। ज़मीन हमारे लिये तंग होती जा रही है। पहले हम इस पर
स्वतंत्रता से विचरण करते थे। अब हमारे हिस्से में 'छते' और 'मुण्डेरे' ही बची है [भरे बाज़ारों में हमारी माँ-बहनो को मजबूरन इस पर बैठना पड़ता है]। प्रकर्ति-प्रदत्त घरो [वृक्षों] को ये बेदर्दी से काटे चला जा रहा है। पृथ्वी  पर हमारे दुशमन कुत्तो से इसने यारी बढ़ाली है उसे गौद में और गाड़ियों में लिये घूमता है।
कभी ये अपने घरों की छतो पर पापड़-बड़ी, अचार सजाये रखता था [क्या मज़ेदार दिन थे वे], अब तो कीड़े लगा सड़ा अनाज ही मिलता है इन छतो पर धूप पाने के लिये। तथाकथित मानवीय मूल्यों की गिरावट यही तक नही रुकी, अब लेखनी के माधयम से हमें अव्मूल्यीत किया जा रहा है। नाच, निर्माण और नंगेपन की कला
हमसे सीखने वाला इन्सान अब हमारी तुलना काग़ज़ी शेरो [शेयरो] से करने की जुर्रत कर रहा है।
अपने राज महलो [संसद भवनो] की उम्मीदवारी के टिकट 'बंदरबाँट'' के हमारे फ़ार्मूले के आधार पर आश्रित मनुष्य अब हमे पिंजरे में बंद देखना चाहता है। अपने मनोरंजन की वस्तु मानने लगा है हमें,
अपनी फ़्लाँप फ़िल्मों के कलाकारो से ऊब कर! हाँ- कुछ संस्कारवान लोगो ने अपनी सेनाओ को हमारा नाम प्रदान कर हमें प्रतिष्ठित भी किया है, हम उनके क्रतझ है, मगर कलम तो हमे थामना ही पड़ेगा,
अपनी अस्मिता की सुरक्षा के लिये यही एक मात्र अहिंसक और शालीन रास्ता है, और फ़िर हम तो अहिंसावादियों के प्रेरक भी रहे है।
पहला अमानवीय बलाँगर्………
श्री पुण्डाकारी…[यह मैरा बलाँगरी नाम है, असली नाम अभी प्रकट नही कर सकता अपने समाज से ब्लाँग लिखने की आझा लेना शेष है]
# इसके पहले कि मैं कोई कमेंट करता, काग़ज़ का टुकड़ा मैरे हाथ में थमा कर ये जा…वो जा…, वैसे भी बंदर लोग कमेंटस का स्वाद क्या जाने!
 ## काग़ज़ का टुकड़ा हाथ में लिये अवाक सा…इस सोच में डूब गया कि बचपन में इसी छत पर से मैरे हाथ से रोटी का टुकड़ा छीन एक बंदर चम्पत हो गया था, कही उसका कोई नाती तो यह कर्ज़ नही चुका गया?

Thursday, October 23, 2008

To Be

होना.....

'होना'', हमारे लिये साधारण बात हो गयी है, इसी लिये हमें 'अपने' ही होने का अह्सास नही हो पाता।
सपने में ही कभी-कभी खुद के होने के अह्सास को चिकोटी काट कर कन्फ़र्म ज़रूर किया है, मगर आँख खुलते ही हम 'हम' कहाँ रह्ते है। होने को हम बहुत कुछ है, बेटा-बेटी, भाई-बहन, माँ-बाप, पति-पत्नी
दोस्त-दुशमन, आस्तिक-नास्तिक, गुरू-शिष्य, नेता-अनुयायी, इस या उस देश के वासी। और हाँ-  मनुष्य होने का आभास भी हमें कभी-कभी होता है- व्यथा की घड़ी में!  पशुत्व को तो हम अपने आवरण  तक ही सीमित रखते है कि पशुत्व में प्रकट होना हमे अपनी गरिमा के विपरित लगता है।
और भी बहुत कुछ 'होना' हमे अच्छा लगता है - जो हम नही है, मगर इस "होने" की भीड़ में;  सचमुच हम क्या है?…और क्या है ये सचमुच?……ये ''सचमुच होना" भी बड़ी साधारण बात है…'हम'
तो बड़ी असाधारण चीज़ है!

-मन्सूर अली हाश्मी

Wednesday, October 22, 2008

पत्नी बनाम प्रेयसी

असाहित्यिक प्रेरणा !

  साहित्य का एक 'कला' के तौर पर विकास होने के बावजूद सम्पूर्ण मानव समाज ने,इसके बहुसंख्यक वर्ग ने साहित्य को समाज के परिप्रेक्ष्य ही में देखा और मूल्यांकन किया है। इसलिये स्वतंत्र और निष्पक्ष विचार धाराये, इस समबंध में आमंत्रित किये जाने [बौद्धिक और साहित्यिक वर्ग के विद्वानो से] पर भी प्रेयसी का प्रेरणा वाला स्वरूप और समाज में उसके लिये कोई प्रतिष्थित स्थान तलाशने की कौशिश का कोई हल नही निकला है।
एक सामाजिक प्राणी होने के नाते एक साहित्य्कार का सामाजिक मूल्यो के प्रति झुकाव नैसर्गिक है और अपेक्षाक्रत अधिक बजाय कला समर्पिता के।
अब प्रश्न यह उपस्थित होत है कि साहित्य जो कि एक कला है को समाज से किस सीमा तक निर्दिष्ट होना चाहिये विशेषकर प्रेयसी से प्रेरणा प्राप्त करने वाले पहलू पर?
साहित्यकार, जो कि एक कला का प्रतिनीधि है का समाज से या समाज के व्यक्ति[प्रेयसी/प्रेमी] से प्रेरणा प्राप्त करना वर्जित तो नही है परंतु एसा करते हुए वह उस समाज के बंधनो से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित अवश्य होता है, उसकी मर्यादाओं से प्रतिबंधित ज़रूर होता है।
यही प्रतिबंध या अवरोध हटाने की ख़ातिर श्री जैनेन्द्र कुमारजी के ज़हन में यह विचार उपजा कि:-
साहित्यकार को प्रेरणा प्रदान करने वाले पात्र [प्रेयसी/प्रेमी] को न्याय संगत स्थान दिलाया जाए!
इसी विषय के औचित्य पर विभिन्न समकालिक साहित्यकारो,विद्वानो ने पक्ष-विपक्ष में तर्क प्रस्तुत किये। मगर बात आगे नही बढ़ी, बढ़ भी नही सकती थी। समाज की रुढ़िवादिता एसे किसी विचार का
स्वागत कर ही नही सकती।
तब फ़िर "प्रेरणा" 'प्रदान' करने वाली इस महत्वपूर्ण "कड़ी" से सम्बंधो को क्या असंवैधानिक ही रहने दिया जाये?……………यहाँ तक …पहुंचते-पहुंचते इस विषय की गंभीरता से इतना 'बोर' हो गया हूँ कि……………अब मूड बदल कर ख़ुद के साथ आपका भी मनोरंजन  करदूं!
थोड़ा कल्पनाशीलता का सहारा लेना पड़ेगा! चलेगा न?

माना कि साहित्य रचना के मुख्य प्रेरणा स्त्रोत यानि प्रेयसी/प्रेमी को समाज व साहित्यिक बिरादरी ने मान्यता प्रदान करदी……सामाजिक प्रतिबंधो के ये कोष्ठक खुलते ही रोमांचित हो कर भावुक साहित्यकार प्रणय रस के सागर में गौटे लगाने लगे! एसे ही लोमहर्षक पल में एक विख्यात, प्रबुद्ध और छह दशक से साहित्य सेवा में रत श्री प्रभात कुमार जी ने नयी स्फ़ूर्ति और जोश से कलम थामा तो उससे पहला साहित्यिक [प्रेम] पत्र यूँ रचित हुआ:-

"किरण",
स्वच्छंद,निर्मल, मेरी रचना की प्रेरणा किरण, प्रभात की किरण यानि मेरी  किरण्।
तुम्हारी यादों के प्रकाशमय उजालो से अब भी प्रेरित हो रहा हूँ। साहित्य रचना में बाधक सामाजिक प्रतिबंध हटने के शुभ अवसर पर अब चार दशकोपरांत तुमसे संवाद स्थापित करने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
जीवन की इस सुरमई संधया में तुम्हारी कल्पना की सुनहरी किरणे मुझे भाव-विभोर किये दे रही है।
प्रेरणा के सागर में, .......नही !… इतनी विशालता की भी आवश्यकता नही, बल्कि मेरी प्रेरणा के मूल बिंदू यानि तुम्हारे रूपहले गालो का वह छोटा सा गडडा [डिम्पल], जिस में मेरा दिल जा समाया था; में गोटा लगाकर साहित्य-संसार को नये आयाम देना चाहता हूँ।
कैसे और कहाँ मिलूँ?…।

दर्शनाभिलाषी,
'प्रभात'

प्रत्युत्तर में जो पत्र प्रभातजी को प्राप्त हुवा, उद्घ्रत न किया जाये तो बात अधूरी रहेगी!

आदरणीय प्रभात कुमारजी,
आशीर्वाद!
ईशवर आपको क्षमा करे कि यह अनर्थ आपने जान-बूझकर नही किया कि मुझ सन्यासिनी को आपने सांसारिकता से ओट-प्रोत वाणी में विलासिता का विषय जान अपने साहित्य में प्रयुक्त किया।
पन्द्रह वर्षो तक विधवा जीवन  का    संताप सहने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंची कि सन्यास ही मोक्ष का उत्तम पथ हो सकता है। मैरी पौत्री ने आपका पत्र हरिद्वार मुझे पोस्ट किया। हाथ कंपकपाए… मगर द्र्ढ़ मन से आपकी पाती पढ़ ही डाली। त्याग की भावना मन को कितनी द्र्ढ़ता प्रदान करती है, शायद आपको अनुभव न हो। मै, व्यथित हुई आप भद्र-पुरुष की मनोदशा पर किंतु विचलित नही।

'प्रेम' भी 'मोक्ष' का एक पथ है, मगर कौनसा प्रेम?…… आप वाला तो निश्चित ही नही जो कि स्वार्थ परित है। आपका 'प्रेम' प्रेरणा प्राप्ति के स्वार्थ की सीमा तक ही है अपने 'प्रेरक' से, .......मूल प्रेम तो आपको अपनी रचनाओं से है। सत्य की कटुता शायद आप बरदाश्त न कर सको मगर उसे प्रकट न करना भी तो पाप ही है…………आपकी प्रेरणा का वह मूल बिंदू वह छोटा सा या हल्का सा गडडा [डिम्पल] अब "खाई" की सूरत में परिवर्तित हो गया है, दाँतो का ढांचा दह जाने से,ऐसे  में आपके "दिल" की 'सुरक्षा' के लिये मै प्रार्थना ही कर सकती हूँ।

सिर्फ़ प्रभु की,
"किरण श्री"

-मन्सूर अली हाशमी

Saturday, October 18, 2008

पति ,पत्नी और वो

श्री दिनेशराय द्विवेदी जी के लिव-इन रिलेशनशिप ने अच्छी हलचल पैदा की है।विषय सामयिक है,जागरूक लोगो का धयानाक्र्षित करने में सफ़ल रहा है। ऐसे ही एक विषय को विख्यात सहित्य्कार-विचारक श्री जैनेन्द्र कुमार जी जैन ने उठाया था सन 1975-76 में [धर्मयुग पत्रिका के माधयम से]। 'पत्नी बनाम प्रेयसी' के शीर्षक 'से।
उद्देशय था:- "रचनाधर्मिता से गहरे जुडे हुए प्रेरणा वाले पहलू को नये साहित्यिक संदर्भो में टटोला जा सके और उसमें से रचना प्रकिया का कोई अनखुला बिंब उजागर हो सके अथवा सामाजिक संबन्धो में किसी नयी क्रांति का संकेत मिल सके।"
प्रतिक्रिया स्वरूप पक्ष-विपक्ष में अनेक मन-भावन और आलोचनात्मक टिप्पणियों का अंबार लग गया। अत्यंत रोचक रही थी यह बहस्। इस संदर्भ में मुझे जो कहना है वह में अगले ब्लाँग के लिये बचा रखता हूँ, यहाँ तो मै कुछ प्रसिद्ध साहित्य्कारो,महानुभावो,सामाजिक चिंतको के विचारो का सारांश दे रहा हूं जिन्होने इस विषय में गहन[?] दिलचस्पी ले कर कई अनछुये पहलुओ को उजागर किया था। आज भी यह बहस प्रासांगिक है तो मै अपने ब्लाँग पर आने वाले ब्लाँगर्स [विशेषकर महिला ब्लाँगर्स] को आमंत्रण देता हूँ कि अब 33 साल बाद दोबारा [आज के बदले हुए परिप्रेक्ष्य में] अपने-अपने मत व्यक्त कर,श्रद्धांजली स्वरुप स्वजैनेन्द्र कुमार जी के विषय [विवाद] को पुनर्जीवित करे,धर्मयुग पत्रिका को धन्यवाद देते हुए:-
1 जैनेन्द्र कुमार जैन:- लेखको को अपनी प्रेरणाओ को तरोताज़ा रखने के लिये पत्नी के साथ एक प्रेयसी भी रखना चाहिये। आदमी सिर्फ़ आदमी नही है,द्वियत्व भी है और पशुत्व भी है। प्रेम जो है वह आदमी की दिव्य्ता से जुडा हुआ संबन्ध होता है और प्रेयसी उसी दिव्य्ता का प्रतिरूप होती है। पत्नी सामाजिक्ता है, प्रेयसी दिव्य्ता है,इश्वरत्व के दर्शन प्रेयसी मे ही प्राप्त होते है।
मैरे तई दिव्य से विछिन्न कोई हो नही सकता। हाँ, यह ख़तरा है कि उस दिव्यत्व में कब आदमी का पशुत्व जुड़ जाए और दिव्यत्व चूर-चूर हो जाये। भोग का संबन्ध आते ही दिव्यता ख़त्म हो जाएगी।

2 भवानी प्रसाद मिश्र:- जैनेन्द्र्जी का कथन इस अर्थ में बिल्कुल ठीक है कि हर आदमी को जी-जान से जीने के लिये किसी एक एसी धुन की ज़रूरत है, जो उसे पत्नी और परिवार से भी ज़्यादा आकर्षक लगती हो,जिसके पास एसी धुन है, उसे भौतिक अर्थो में प्रेयसी की ज़रूरत नहीपडती।



आदर्श दुर्लभ होते है। प्रेयसी पहले दुर्लभ होती थी, अब दुर्लभ नही है। दुर्लभ पाने की इच्छा पुरुषार्थ जगाती है। क्रतित्व की दिशा में प्रेरित करती है। फ़िर प्रेम किया नही जाता , हो जाता है, अगर किसी को एसा हो जाए तो हम सब उस विवशता को समझे और बने तो सहारा दे। वह ख़ुद तो अपने को क्या समझेगा। एसा प्रत्याशित प्रेम रचता कुछ नही है, ख़ुद टूटता है, दूसरे को टोड़ता है।


3 राजेन्द्र यादव:- रचना और कला के क्षेत्र मे सबसे जीवंत,आक्रषक और प्रयोगशील व्यक्तित्व वे है जो परंपरावादी नही है,यानि मर्यादा भंजक है, मर्यादा परंपरा की रक्षक है और हर प्रतिभा ने परंपरा को नकारा है- साहित्य मे कला मे या जीवन मे।

विवाह मर्यादा है,जीवन की एक विशिष्ट और स्वीक्रत पद्धति है,लेकिन किसी भी जीवन-पद्धति मे रहना और उसे स्वीकार करना दो अलग बाते है। हम मे से कितने मर्यादाए तोड़ कर दूसरी और चले जएंगे,यह तो समय ही बताएगा, हाँ, उन्हे लांघने की कोशिश या कम से कम लांघने की बात सोचते तो हम सभी है।

यदि नारी को पत्नी बन कर जीवित रहना है और पुरुष को सिर्फ़ पति ही नही बना छोड़ना है, तो सहने और बर्दाश्त करने की शहीदाना मुद्रा से नही,समझदारी और अन्डर्स्टेन्डिंग के धरातल पर कुछ परिवर्तनो और 'छूटो' को स्वीकार करना होगा। कितनी बेतुकी स्थिति है हि पुरुष की जिन विशिष्टाओ से आक्रषित हो कर नारी उसके निकट आती है, पत्नी बनकर पहला शिकार इन्हे ही बनाती है,कभी जान-बूझकर कभी उस और से उदासीन बनकर्। नतीजे मे वह अलग और उंचा व्यक्ति सिर्फ़ एक अच्छा या बुरा पति हो कर रह जाता है। युद्ध का अंत प्राय: एक की मौत मे होता हैपति या कलाकार्जो बच रह्ता है वह दूसरे की लाश ही ढोता है।

बौद्धिक और मानसिक स्तर पर संसार का कोई एक व्यक्ति दूसरे की ज़रूरत हमेशा पूरी नही कर सकता। हम अपनी ये ज़रूरते टु्कड़ो-टुकड़ो मे ही तलाश करते रहते है- कुछ पुस्तको से, कुछ दोस्तो से और कुछ अपने भीतर डूबकर । अपने भीतर को भी कही बाहर से ही सींचना , सम्रद्ध करना पड़ता है। उंट की तरह शाश्वत टंकी ले कर कोई कलाकार नही चलता। अन्यथा वह शिघ्र ही चुक जाती है 

 4 भारत भूषण अग्रवाल:- घर मे पत्नी रोती रहे और पुरुष पर-स्त्री के साथ आनंद लूटता रहे - यह सिद्धांत तो विशुद्ध सामंती है। हमारे ज़मीदार और सेठ प्रबंधित विवाह से असंतुष्ट हो कर यही करते आये है। किसी ज़माने मे तो वेश्यागमन या रखैल रखना प्रतिष्ठा की बात थी। क्या जैनेन्द्र्जी हमारे समाज को फ़िर से उधर ले जाना चाह्ते है? वस्तुत: जैनेन्द्र्जी के चिन्तन मे नारी का पद नर से कुछ घटिया है,जिसे मै सामन्तवाद का अवशेष मानता हूँ। आज की नारी पुरुष को कोई एसा विशेषाधिकार नही दे सकती जैसा जैनेन्द्र्जी ने परिकल्पित किया है, और जहाँ तक पुरुष का संबंध है उसने तो एसी स्थिति न कभी सहन की है और न शायद कभी भविष्य मे सहन कर पएगा।


5 राजेन्द्र अवस्थी:- जैनेन्द्र्जी का वक्तव्य अत्यंत भ्रामक है। आरंभ से अंत तक पहुंचते-पहुंचते वह 'इहलोक' का न हो कर 'परलोक' का हो गया है। यानि उसमे ईश्वरीय तत्व दिव्य्ता जैसी चीज़े देखी गयी है! भोग मे हिंसा, बिना सह्चर्य का प्रेम और 'प्रेमिका' रखने का समर्थन करते हुए भी अपनी 'कुलीनता' की चिंता, मैरी द्रष्टि मे किसी भी नारी के साथ एक ख़ासा मज़ाक है। वास्तव मे विवाह के कुछ वर्षो तक पत्नी भी प्रेमिका ही होती है।उसके बाद धीरे-धीरे दरार पैदा होती है, एकरसता से ऊब आने लगती है और सामाजिक रूप से सुरक्षित 'नारी''पुरुष की उपेक्षा करने लगती है। इन सबका फ़ल यह होता है कि पत्नी, प्रेमिका से अलग हो जाती है।

6 डाँ लक्ष्मी नारायण लाल:- यह निहायत बचकाना, भावुक मन क अत्यंत रूमानी ख़्याल है कि रचनाकार के लिये साहित्यधर्मा के लिये प्रेयसी आवश्यक है। उस प्रेयसी को सुन्दरी से ले कर दिव्य तक, चाहे जितना खींचे,रचे,सजाये पर बात एक औरत या ज़्यादा से ज़्यादा इश्क़ तक ही सीमित रह जाती है। रचनाकार जब रचना नही कर पाता तब मूड की बाते करने लगता है। इसी मूड को ही तब वह प्रेयसी का दिव्य स्वरूप बनाने लगता है और यही से तब वह औरत को दर्जे से गिराकर या तो पैर की जूती वेश्या बनाकर य तो उसे देवी बना कर उसे लूटना,खसोटना,शोषण करना शुरु करता है। मै समझता हूँ कि रचनाकार के लिये उसका तसव्वुर ही उसकी प्रेमिका है। स्त्री हमारे यहाँ प्रेमिका या प्रेयसी भी कहाँ है? वह तो केवल एक भूख

7 गंगा प्रसाद विमल:- जैनेन्द्रजी का वक्तव्य काफ़ी दिल्चस्प है,किन्तु उनके द्वारा प्रस्तावित समस्या विचारणीय नही है, कम से कम आज के लिये वह विचारणीय नही है।क्योंकि आज रचना के लिये प्रेरणा का आधार तथाकथित प्रेम अनिवार्य नही । एक बेमानी अर्थहीन तनाव मनुष्य को सहज बनाने के बजाय अपराधी बना डालता है। मनुष्य की मुक्ति का रास्ता,आर्थिक मुक्ति के रास्ते से जुड़ा है। स्त्री को प्रेरणा मानने वली द्रष्टि पहले उसे भोग की वस्तु मान कर चलती है। प्रेरणा स्त्री को भुलावे मे रख्नने,छलने का औज़ार है। प्रेम और प्रेरणा अगर कोई चीज़ होती है तो वह एकदम निजी प्रायवेट चीज़ होती है।


८- इंदु जैन:- प्रेयसी और पत्नी, अपने संदर्भ मे सीधी बात करूँ तो प्रेमी और पति - इन दोनो शब्दो को बहुत रूढ़, सीमित और पूर्वनिर्धारित अर्थो मे जकड़ कर जैनेन्द्रजी ने बात कही है। प्रेम उन्गलियो की चुनचुनाहट तक दिव्य्ता क आभास कराये और भोग तक पहुंच कर सहचर्य की ऊब या अतिपरिचय या दुष्करता मे परिणत हो जाये-मैनही मानती। द्वंद्व रचना के लिये अनिवार्य है। पति और प्रेमी के बीच द्वंद्व मे रह कर उस से रचना दुहना सबसे सहज और आसान हुआ करता है। लेकिन यह अनिवार्य नही है-यह ज़रूरी बिल्कुल नही। प्रेमी होते हुए भी प्रेम पति से ही किया जा सकता है, लेकिन प्रेमी के होने से वैवाहिक संबन्धो मे पूर्णता आयेगी ही, जैसा जैनेन्द्र्जी कह्ते है- तो वह ज़रूरी नही। प्रेमिका या प्रेमी का होना मनुष्य की आवश्यकता 'साइकी''से संबन्धित है, इसकी अतर्प्ति मे भी ही जीवाणु है, जितने इसकी तर्पति मे।


9 सौमित्र मोहन:- जैनेन्द्रजी के वक्तव्य मे एक पुर्वस्थापना यह भी है कि प्रेयसी होने से द्वंद्व तो ज़रूर होगा, लेकिन उससे "विवाह संस्था विकास पाएगी", यानि जैनेन्द्रजी विवाह संस्था को किसी न किसी रूप मे अनिवार्य मानते है, मैरी बुनियादी असहमति इसी पूर्वस्थापना से है। इसमे शक नही की रोमांस की शुरूआत मे आप उंग्ली छू कर कांप जाते है, पर एसा केवल पहली बार होत है। इसकी पुनराव्रत्ति नही होती। एक या दूसरे के साथ लगातार रहते चले जाना कुंठित करता है। बेहतर यह है कि लेखक इन दोनो से भागे। किसी भी औरत को ढोना कष्टकर होता है; "मै हर समय एक यंत्रणा से गुज़रता हूँ चुने जाने की"।


10 मनोहर श्याम जोशी:-पूछा जा सकता है कि पत्नी ही को प्रेयसी क्यों न मान लिया जाए। लेकिन पत्नीत्व मे अप्रस्तुति, अनुपस्थिति और अप्राप्य का वह बोध कहाँ से आयेगा जो प्रेम का आधार है,जो मिल गयी जो मिलती ही जायेगी, उसे दिव्य प्रेमिका कैसे कहे!


11 रामधारी सिंह दिनकर:- मुझे न अपनी पत्नी ने प्रेरित किया और न अपनी संगति मे आने वाली किसी नारी ने। लेखक जब वन का वर्णन कर रहा होता है , तो वह किसी एक वन का वर्णन कभी नही होता उसमे उन तमाम वनो का चित्रण होता है,जिन्हे लेखक ने देखा है, जिन्हे लेखक ने पढ़ा है।




समापण वक्तव्य:-




जैनेन्द्रजी:- प्रेम शब्द से यौवनोचित यौन चित्र जिनके मन मे उदय पाता हो, उनसे मुझे
कुछ नही कहना है। मैरे निकट प्रेम उस प्रस्पराक्रषण तत्व के लिये सगुण संझा है,जिस पर सचराचर समस्त सर्ष्टि टिकी है। निगुण भाषा मे उसी को ईश तत्व कह लीजिये। व्यवहार और वर्तमान मे ही मनुष्य समाप्त नही है। उसे आगे के लिये जीना होता है। और इस काम मे सपना मदद करता है- अर्थात, यथार्थ के धरातल को ऊपर उठाना हो, तो उस अभिष्ट के लिये आदर्श की आवश्यकता पड़ती है।
उन्नति की दिशा यही है कि विवाह से दंपति पर एक दूसरे को अधिकार उतना नही जितना क्रतव्य मिले। अर्थात दोनो एक दूसरे के पहरेदार नही,विश्वस्त साथी हो। इस भूमिका पर आयेंगे तो देखेंगे कि पति-पत्नी और प्रेमी-प्रेमिका मे एक उदार सहानुभुतिपूर्ण अस्तित्व बन आता है। ये चारो रूप सभ्यता के आरंभ से जन्मे है तो अंत तक चलने वाले है। फ़िर उसके बीच अनबन को उचित और अनिवार्य बनाए रखना कौनसी बुद्धिमानी है?बीच मे उदाराश्यता का ही संबध है जो समाज को सपन्न और समुन्नत बनायेगा। किसी श्रेयार्थ या परमार्थ के फ़ेर मे काम और प्रेम के इस मूल प्रश्न से मुंह मोड़ना और हठात दूस्ररी नैतिक अथवा लौकिक व्यस्त्तताओ को ही सार्थक माने रखना आंतरिक पलायन जैसा ही होगा। समाज का शायद एक बड़ा संभ्रात वर्ग है,जो सतह पर इन प्रश्नो को लाने से डरता है। उस डर के नीचेही रोग बढ़ता और सड़ता है। इसलिये मुझे तनिक भी पछतावा नही कि आपके पत्र [धर्मयुग] ने उसे रंगीन बनाकर उछाला है। उसकी सर्थकता और उपयोगिता किन्तु रंगीन लोगो तक ही सीमित नही है, हर विचारशील के लिये वह संगत विचारणीय और विवेचणीय है।




परिसमापन



इलाचन्द्र जोशी:- जैनेन्द्र्जी की यह बात इस द्रष्टि से कुछ नइ नही है कि क्या पूर्वी और क्या पाश्चात्य देशो के प्राचीन,मधययुगीन और अर्वाचीन रोमांटिक साहित्य के रचनाकारो ने अपनी क्रतियो मे पत्नी की उपहास्पद या उपेक्षित स्थिति दिखाकर प्रेयसियो को जिस रूप मे सिर-माथे चढ़ाया है,उससे पत्नी का स्थान रोमांटिक संसार मे स्वत: स्पष्ट हो जाता है। धिक्कार है उस प्रेरणा को जो पत्नी को ठुकरा कर उसके संपूर्ण अस्तित्व ही को झुटला कर, उसे पग-पग पर अपमानित,तिरस्क्रत कर और निहायत ज़लील करके लेखक एक ज़ालिम प्रेयसी द्वारा ही प्राप्त कर सकता हो। सभ्यता के प्रारम्भिक काल से लेकर आज तक पत्नी का समाज मे जो अपूर्व गौरवपूर्ण और अखंड गरिमामय स्थान रहा है- क्या पूर्वी और क्या पश्चिमी देशो मे- वह आज की विभिन्न प्रकार की झूठी और सच्ची सामाजिक,साहित्यिक, राजनीतिक वैझानिक क्रंतियो [या भ्रांतियो] के युग मे भी समाज मे अक्षुणण है,[आज के विश्व व्यापी 'लिब मूवमेंट' के बावजूद]। कोई भी आवारा तूफ़ानी शक्ति उसे डिगा नही सकी। केवल सभ्य और सुसंस्क्रत देशो की ही बात नही कह रहा हूँ,असभ्य और अर्द्ध विकसित देशो और जातियो मे भी आदिम प्रक्रति ने पत्नी की परिवार की अपार करुणामयी सेविका की वही गरिमा किसी सार्थक योजना द्वारा स्वंय सिद्ध रूप से सुरक्षित रखी है। आप कैसे ही दुस्साहसी और प्रगतिशील विचारक क्यो न हो, मूल प्रकर्ति के अनादि और अंतहीन बंधन को काट कर अपना अस्तित्व किसी भी हालत मे कायम नही रख सकते। मैरा एक विनम्र सुझाव है, आज के विश्व व्यापी 'लिब मूवमेंट' के युग मे केवल भारतीय पत्नियाँ ही नही, संसार भर के तथाकथित उन्नत देशो की पत्नियाँ बर्बरयुगीन दासता से भी विकट विवशता की जिस स्थिति मे अपना जीवन बिता रही है और निरंतर अपने तप और त्याग द्वारा परिवार और समाज को एकदम अर्थहीन विश्रंखला की स्थिति से उबारते चले जाने के 'थैंकलैस' काम मे अपने को बिना किसी शिकायत के खपाती चली जा रही है,वह अपनी निपट मूर्खता,अशिक्षा या दूसरी किसी विवशता के कारण नही अपनी प्रक्रतिगत विशेषता के कारण कर रही है, तब उनके बीच मे प्रेयसियो को स्थापित करके उन्हे उद्वेलित क्यो किया जाये, इसमे क्या तुक है? यदि लेखको का मस्तिष्क आज के युग मे इस कदर जड़ हो चुका है कि पत्नी की सेवा से उसमे चेतना ही नही आ पाती, तो भाई साहब आप लोग सब इतने बड़े लेखक है, क्यो इन बेचारी पत्नियो को प्रेयसियां बन जाने की प्रेरणा या टरेनिंग नही दे पाते? यदि आप मे इतनी भी शक्ति नही है तब आप के लेखन को वह गौरव क्यो दिया जाये कि आपकी लेखकीय क्रपा के प्रति अनुग्रहित हो कर जनता आपके लिये प्रेयसियां जुटाने का कष्ट उठाये? मैरा तो एक सरल नुस्खा है, आप लोग चाहे तो इसे अपना कर देख ले। मैरा कहना है कि आप पत्नी ही एसी स्त्री को बनाये,जिसे आप विवाह के पहले ही अपनी प्रेयसी बनाकर परख चुके है। समापण्………!…………?

Wednesday, October 15, 2008

consumer fouram

तीसरा खंबा: कानूनी सलाह : क्या वकील का मुवक्किल एक उपभोक्ता है?

हम को उपभोक्ता बना लीजे ,
फीस जितनी भी हो बढा दीजे,
आप लड़िये हमारे खातिर ही,
बीच* वालो को सब हटा दीजे.


*फोरम्स

एम्. हाशमी

Sunday, October 12, 2008

भाई का डर

दिनेश राय जी द्विवेदी के लेख से प्रभावित हो कर्……।


है विषय आपका लाँ & ओँर्डर,
ज़िक्र करते है हम सभी अक्सर,
व्याख्या आपकी बहुत सुन्दर,
"भाई" कह्ते है-ला… नही तो डर्।*

[*लाँ or डर]

मन्सूर अली हाशमी