इस रंग बदलती दुनिया में......
नक़ाबो में कईं चेहरे छिपे है,
नज़र है जैसी वैसा ही दिखे है.कोई 'लाली' से 'आतंकित' किसी को,
'हरा' सब 'सांप' के जैसा लगे है.
जो 'तप' और 'त्याग' का प्रतीक था अब,
वही 'भगवा' क्यों 'संसारी' लगे है.
'सफेदी' थी 'मुक़द्दस'* की ज़मानत, [*पवित्रता की]
कईं 'धब्बे' अब इस पर भी लगे है.
'गुलाबी' में मोहब्बत की कशिश थी,
क्यों 'कांटो' सी 'निगाहों' को चुभे है?
कभी 'नीला' समंदर दिलरुबा था,
लबालब 'ज़हर'* का दरिया लगे है. [polluted हो कर]
फ़िज़ा की खुशगवारी क्या हसीं थी,
धुआँ हर सिम्त ये कैसा उठे है?
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चार लाईने हिंदी की आज की साहित्यिक संस्कृति पर:-
तराने, राग थे, किलकारियां थी,
हवस है आग है चिंगारियां है !
ये कैसी "छीना-झपटी" कि उड़ी है,
हमारी अस्मिता की धज्जियां है !!
-मंसूर अली हाशमी
2 comments:
मंसूर साहेब,
नाचीज़ का सलाम क़ुबूल फरमाएं!
आपने एक नायाब नज़्म लिखी है.....
मायनों से लबरेज़.....
और हां, रमज़ान मुबारक!
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गुज़रे ज़माने की फिल्में: फिल्लौर फ़िल्म फेस्टिवल में!
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