अजित वडनेरकर जी के 'शब्दों के सफ़र' पर आज ३१-०५-१० को ये नाश्ता मिला :-
[
इसको 'बड़ा' बन दिया इन्सां की भूख ने,
'आलू' वगरना ज़ेरे ज़मीं खाकसार था.]
आलूबड़ा
खाके, पचाके 'छोटा' ही बतला रहे है हम.
घर है, न है दुकान, सड़क किसके बाप की!
'वट' वृक्ष बनके फैलते, बस जा रहे है हम.
'चौड़े' गुजर रहे है क्यों 'पतली गली' से अब!
कब से इसी पहेली को सुलझा रहे है हम.
कुछ इस तरह से कर लिया फाकों का अब इलाज,
मजबूरियों को पी लिया, ग़म खा रहे है हम.
इसको सराय मान के करते रहे बसर,
थक हार कर अखीर को घर जा रहे है हम.
mansoorali hashmi