Monday, January 5, 2009

Determination/संकल्प

संकल्प [अज़्म]

गर अज़्म अमल* में ढल जाए,
हर मौज किनारा बन जाए।


हिम्मत न अगर इन्साँ हारे,
हर मुशकिल आसाँ हो जाए।


गर आदमी रौशन दिल करले,
दुनिया में उजाला हो जाए।


इन्सान जो दिल को दिल कर ले,
हर दिल से नफ़रत मिट जाए।


जो दिल ग़म से घबराता है;
वह जीते-जी मर जाता है,
जो काम न आए दुनिया के;
वह हिर्सो-हवस# का बन्दा है।


*कार्यान्वयण
# लालच व स्वार्थ


म.हाशमी।

Sunday, January 4, 2009

Ghazal-2

ग़ज़ल-2

रात रोती रही,सुबह गाती रही,
ज़िन्दगी मुख्तलिफ़ रंग पाती रही।


शब की तारीकियों में मेरें हाल पर,
आरज़ू की किरण मुस्कुराती रही।


सारी दुनिया को मैने भुलाया मगर,
इक तेरी याद थी जो कि आती रही।


मैं खिज़ा में घिरा देखता ही रहा,
और फ़सले बहार आ के जाती रही।

हाशमी मुश्किलों से जो घबरा गया,
हर खुशी उससे दामन बचाती रही।


म्। हाशमी

Wednesday, December 31, 2008

ग़ज़ल-1

ग़ज़ल-1

जुस्तजूं* में उनकी हम जब कभी निकलते है,
साथ-साथ मन्ज़िल और रास्ते भी चल्ते है।


दौर में तरक्की के दिल लगाके अब मजनूँ,
रोज़ एक नई लैला आजकल बदलते है।


ता-हयात मन्ज़िल पर वो पहुंच नही सकते,
मुश्किलों के डर से जो रास्ते बदलते है।


ज़िन्दगी की राहों में हाशमी वह क्यों भटके,
जो जवाँ इरादों को साथ ले के चलते है।

*तलाश
-मन्सूर अली हाशमी।

आशावाद /optimism

नई मंजिल

कुछ खुश्गवार यादों के साये तले चले,
कुछ खुश्गवार वादो के साये तले चले,
कुछ यूँ चले कि चलना मुकद्दर समझ लिया,
आखिर जहाने फ़ानी से से चलते चले गये।


रुक यूँ गये कि दश्त* को गुलशन समझ लिया,
और सामने पहाड़ को चिल्मन# समझ लिया,
सोचा कि अबतो देख के नज़्ज़ारा जाएंगे,
ठहरे हुए को दुनिया ने मदफ़न समझ लिया।


फ़िर चल पड़े तलाश में मन्ज़िल को इक नयी,
लेकर चले उमंग नयी, आरज़ू नयी,
गुज़री हुई बिसारके आगे को चल दिये,
नव-वर्ष आ गया है, सुबह भी नयी-नयी।
*जंगल
#पर्दा
ईश्वरत्व का
कब्र
[नोट:- अन्तिम चार पंक्तियां- श्री द्विवेदीजी और सुश्री वर्षाजी की फ़र्माईश पर जोड़ दी है]
सभी ब्लागर साथियों को नव-वर्ष [2009] की बधाई, शुभ-कामनाओ सहित, जय-हिन्द्।


मन्सूर अली हाशमी।  

Foul Player

अनाड़ी-खिलाड़ी

जंग अब भी जारी है,
जूतम-पैजारी है।


कारगिल से बच निकले,
किस्मत की यारी है।

खेल कर चुके वह तो,
अब हमारी बारी है।

एल,ई,टी ; जे-हा-दी,
किस-किस से यारी है?


मज़हब न ईमाँ है,
केवल संसारी है।


सिक्के सब खोटे है,
कैसे ज़रदारी है?


पूरब तो खो बैठे,
पश्चिम की बारी है!


-मन्सूर अली हशमी

आकलन

आकलन
दौड़-भाग करके हम पहुँच तो गये लेकिन,
रास्ते में गठरी भी छोड़नी पड़ी हमको।

साथ थे बहुत सारे, आस का समन्दर था,
छोड़ बैठे जाने कब, जाने किस घड़ी हमको।

अब है रेत का दरिया, तशनगी का आलम है,
मृग-तृष्णा थी वो , सूझ न पड़ी हमको।

एक सदा सी आती है, जो हमें बुलाती है,
मौत पास में देखी, देखती खड़ी हमको।

अलविदा कहे अबतो, फ़िर कहाँ मिलेंगे अब,
अंत तो भला होगा,चैन है बड़ी हमको।

-मन्सूर अली हाशमी

Tuesday, December 30, 2008

Cursing

Tuesday, 30 December, 2008
मिर्ज़ा ग़ालिब तो "गालिया खाके बे मज़ा न हुआ" वाली तबियत के मालिक थे, अब जो घुघूती जी ने गालियों वाला सोपान खोला है, रोचक बनता जा रहा है. गालियों के उदगम के नए-नए क्षेत्र उजागर हो रहे है. परंपरागत के अतिरिक्त सामंतिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, लिंग-भेदी वगेरह -वगेरह. मैंने भी गालियों के सन्दर्भ में अपने ब्लॉग ''यथार्थवादिता'' में धार्मिक और सामाजिक असहिष्णुता को लेकर चल रहे 'गाली-युद्ध' का ज़िक्र किया था, जो इस तरह था:

[
आप-साहब, श्रीमान, जनाब, महाशय और शिष्टाचारी रूपी सारे वह शब्द हम त्याग दे जिसे बोलते समय हमारा आशय सद नही होता। सदाशयताका विलोप तो जाने कब से हो गया। क्यों न हम यथार्थवादी बन सचमुच जो शब्द हमारी सोच में है, तीखे, भद्दे, गन्दे, गालियों से युक्त, विषयुक्त परंतु कितने आनंद दायक जब हमें उसे प्रयोग करने का कभी सद अवसर प्राप्त होता है।क्यों न हम यह विष वमण कर दे, और इसे तर्क संगत साबित करने के लिये, इतिहास के गर्त मे सोये दुराचारो, अनाचारो, अत्याचारो के गढ़े मुर्दे बेकफ़न कर दे! अच्छा ही होगा, हमें बद हज़मी से भी ज़्यादा कुछ होगया है, हमारा सहनशील पाचक मेदा अलसर ग्रस्त हो गया है! और मुश्किल यह है कि हमें लगातार तीखे मिर्च-मसाले खिलाये जा रहे है-- धर्म के, दीन के, स्वर्निम इतिहास की अस्मिता के नाम पर,जबकि नैतिक पतन के इस दौर में ये शब्द अर्थ-हीन होते जा रहे है। मज़हब की अफ़ीम से , नींद आ भी जाये परन्तु 'अल्सर' तो दुरस्त नही होगा। इस अल्सर को कुरैद कर काट कर उसमें से अपशब्दो को बह लेने दो। इसमें मरने का तो डर है, परन्तु अभी जो स्थिति है उससे बेह्तर है। मैने तो सभ्य बनने की कौशिश में शिष्टाचार का जो आवरण औढ़ रखा है उसमें गालियां भी दुआए बन कर प्रवेश होती है। परन्तु अप शब्दों का मैरे पास भी टोटा नही, छोटपन दिखाने के लिये मेरा कद भी आप से कम छोटा नही। शब्दों के मेरे पास वह बाण है कि धराशायी कर दूंगा तमाम कपोल-कल्पित मान्यताओ को, वीरान इबादत गाहो को,परन्तु नमूने की कुछ ही बानगी परोस कर ही मैं यह दान-पात्र आपके बीच छोड़ना चाह्ता हूँ. इस अवसर को महा अवसर मान कर बल्कि महाभारत जान कर कूद पड़ो]
मेरा यह मानना है की गालियों के उदगम में मूलत: गुस्सा, असहिष्णुता, असंतुष्टि और असहजता ही व्याप्त होती है जिस पर मनुष्य का बस कम होता है. ऐसे में वह गाली वाला अस्त्र सहजता से प्रयुक्त हो जाता है. अगर यह सफल रहा तो सामने वाले को दबा देता है या प्रत्युत्तर में तगड़ा वार् झेलना पड़ता है. अक्सर गाली देने वाला गाली झेलने में कम ही सक्षम होते है.
परम्परानुसार, लिंग-भेद के चलते स्त्री-लिंग ही गालियों की ज़द में अधिकतर आता है, जो हमारे सामाजिक उत्थान के स्तर को दर्शाता है. इसी स्तर की स्थिति ने हमें परेशान किया है की हम ''गाली-पुराण'' पर गंभीरता से चर्चा करनेको उद्वेलित हुए है एक कमेन्ट में 'मीठी'' गाली का भी ज़िक्र आया , अच्छा लगा. यह ''मिठास'' भी मधु-मेह का precaution लेते हुए प्रयोग की जाए तो बेहतर है. यह अस्त्र कम संहारक होता है. एक दान-पात्र ऐसी मीठी गालियों के लिए मैं अपने ब्लोगर साथियो के बीच छोड़ना चाहता हूँ, इसे भर कर नवाजिश फरमाए, इसी बहाने यह बहस और कुछ दूर तक चलने दे.सभी दिखाएँ
-म.हाश्मी .

Monday, December 29, 2008

Technological Nuisance

अक्कल-युग 

डांट [DOT] कर जो काम [COM]करवाओ तो होता आजकल,
मेल [MAIL] से ही तो मिलन लोगो का होता आजकल।


पहले मन से और विचारो से न था जिसका गुज़र,
ढेर सारे "मैल" अबतो मिल रहे है आजकल .


कोई याहू.न की तरफ़ लपका तो कोई ''हॉट'' पर,
गू-गले [goo-gle] से भी उतरता हमने देखा आजकल.


झाड़-फूँको की जगह अब आ गया है ''ORKUT'',
फूंक के बिन आदमी जालो में फसता आजकल.


याहूँ का पहले कभी 'जगंली' मे होता था शुमार,
अब तो हर टेबल के उपर [DESKTOP]मौजूद होता आजकल्।


पहले बालिग़ [व्यस्क] होने को दरकार थे अठारह साल,
नन्हा-मुन्ना भी यहाँ होता ब्लाँगर आजकल्।


मन्सूर अली हाशमी

Saturday, December 27, 2008

चौथा बन्दर

चौथा बन्दर

स्थान:- मकान की छत
समय:- प्रात: 6 बजे
कार्य:- ब्लाँगरी

फ़िर वही सुबह,वही छत,वही ब्लाँगिन्ग्। आज फ़िर बन्दर दर्शन हुए। यक न शुद, दोशुद [एक नही दो-दो]।
हाश्मी: बहुत खुश हो , क्य बात है? बन्दरजी!

बन्दर: बन्दर नही, ज़रदारी कहो, अब मैं भी मालदार[ज़रदार] हो गया हूँ.
हाश्मी: कोई मदारी मिल गया क्या?
बन्दर: नही, मेरे पहले ब्लाग "अथ श्री बन्दर कथा" की बदौलत्।
हाश्मी: वाव! कितने डालर मिले?
बन्दर: डालर! उसका हम क्या करे? हमे कोई जूते थोड़े ही खरीदना है!
हाश्मी: फ़िर क्या मिल गया है?
बन्दर: आम का बग़ीचा, पूरे दस पैड़ है।
हाश्मी: किसने दिया?
बन्दर: एक एन आर आई ने, वह अपने कुत्ते के नाम वसीयत करने वाला था, मगर वह किसी मंत्री पर भौंक बैठा और मारा गया। ऐसे में संयोग्वश उस एन आर आई ने मेरी "अथ श्री कथा"
पढ़ ली, इतना प्रभावित हुवा कि पहली ही तश्तरी में उड़ान भर कर मेरे पास आ पहुंचा।
इस तरह उसका 'चौपाए खाते' वाला दान मेरी झोली में आ गया। मैं , बैठे-बिठाये पंच हज़ारी हो गया। पांच हज़ार आम सालाना का मालिक!
हाश्मी: यह तुम्हारे साथ दूसरा कौन है?
बन्दर: यह मेरे ब्लोग का फ़ोलोअर है। जब से मैं ज़रदारी बना हूँ, मेरा  पीछा ही नही छोड़ रही, बन्दरी है ये, समझे ना?
हाश्मी: अब क्या करोगे?
बन्दर: ब्लाँग से अच्छा क्या काम हो सकता है, वही जारी रखूंगा।
हाश्मी: अभी क्या लिख रहे हो?
बन्दर: लिख तो लिया है, अभी तो इस चिंता में हूँ कि 'ब्लाँग एडरेस' क्या बनाऊँ? 'तीन बन्दर' तो
मनुष्य ने रजिस्टर्ड कर ही रखे है। सौचता हूँ 'चौथा बन्दर' ही नाम दे दूँ?  "बुरा मत लिखो" के सलोगन के साथ्। बाकी तीन सलोगन - बुरा न बोलना, न सुनना व न देखना का ठेका तो
मनुष्य ने उसके प्रतीक बन्दरो को सौंप निश्चिंत हो गया है। यह चौथे बन्दर की प्रेरणा मुझे आप लोगों के चौथे स्तंभ से भी मिल रही है, जो शायद लिखने-लिखाने की बाबत ही है। हालांकि
पहले तीन बन्दर भी अपना संदेश पहुंचाने में असफ़ल प्रतीत हो रहे है, फ़िर भी यह 'चौथा बन्दर'' अति आवश्यक इसलिये हो गया है कि आज कल आप लोग निर्बाध हो कर कुछ भी लिखते चले
जा रहे हो। मुझ में तो गाँधीजी बनने की यौग्यता नही मगर मैं  उस आदर्श-पुरुष को नमण कर अपना 'चौथा बन्दर' लांच कर रहा हूँ, नये वर्ष की पूर्व संधया पर, "बुरा मत लिखो'' के नारे के साथ्। तर्कवादी मनुष्य कोई गली न निकाल ले इसलिये इस नारे को ''बुरा मत छापो" के संदर्भ में भी लिया जाए।
यह बात मुझे अच्छी तरह पता है कि मनुष्य इस चौथे बन्दर को अपने तीन आदर्श बन्दरो के साथ जगह नही देंगे। फ़िर मैं इसको स्थापित कहाँ करुं?  बल्कि क्यों करूँ?,  हम बन्दर आप लोगों की तरह रुढ़िवादी नही है, कहीं टिक कर बैठना, आप लोगों की तरह कुर्सी या सिंहासन पर चिपक जाना हमारी फ़ितरत के खिलाफ़ है।
आपको इस चौथे बन्दर के दर्शन भी आसानी से उपलब्ध हो जाएंगे, आपके तथा कथित निकट वर्तमान के नेताओ की जो मूर्तीयाँ  जगह-जगह पर स्थापित है;  उस पर सवार कोई बन्दर नज़र आये तो समझ लेना वही चोथा बन्दर है, प्रतीकात्मक रूप में यह कहता हुआ कि "बुरा मत लिखो",  नही तो आपकी भी मूर्ती कहीं लग जएगी!
हाश्मी: वाह-वाह! ये तो पूर ब्लाँग ही बन गया!
बन्दर: ब्लाँग नही बन्दरलाँग कहिये।

अचानक बन्दरी उछल कर बन्दर के सिर पर सवार हो गयी.....मैने आश्चर्य से पूछा…ये क्या!
बन्दर: नही समझे?…यही तो चौथा बन्दर है…बोले तो…? "बुरा मत लिखो"…हम चले…बाय!

Monday, December 15, 2008