Friday, September 11, 2009

Observation.....

देखा है...


उनका चेहरा उदास देखा है,
ज़ख्म इक दिल के पास देखा है।


बात दिल की जुबां पे ले आए,
उनको यूँ बेनकाब देखा है।


हो गुलिस्ताँ की खैर शाखों पर,
उल्लूओं का निवास देखा है।


सीरियल सी है जिंदगी की किताब,
बनना बहुओं का सास देखा है।


क्या जला है पता नही चलता,
बस धुआँ आस-पास देखा है।


जिसको पाने में खो दिया ख़ुद को,
उसको अब ना-शनास * देखा है।


उनके रुख पर हिजाब * की मानिंद,
हमने लज्जा का वास देखा है .

देखते रह गए सभी उसको,
घास को अब जो बांस देखा है.


*अपरिचित , पर्दा


-मंसूर अली हाशमी









Thursday, September 10, 2009

Mine Nine-Nine

9 - 9 - NO!

9--९ सुनते दिन गुजरा था,
No--No सुनते रात गुज़र गई.

खैर यही की खैर से गुजरी,
पंडित जी की जेब भी भर गई.

रस्ता काट न पाई बिल्ली,
हम सहमे तो वह भी डर गई.

काम बहुत से निपटा डाले,
काम के दिन जब छुट्टी पड़ गई.

एक सदी तक जीना होगा,
जिनकी नैना ९ से लड़ गई.

टक्कर मार के भी पछताई,
NAINO आज ये किससे भिढ़ गई.


-नन्नूर ननी नान्मी

Monday, August 31, 2009

मन्ज़िले मक्सूद



मंज़िले मकसूद
[बीसवीं सदी (उर्दु मासिक पत्रिका,दिल्ली) मे 2005 प्रकाशित कहानी-लेखक द्वारा ही हिन्दी में अनुवादित]


बस में खिड़की के पास बैठना नईम को ज़्यादा पसन्द था लेकिन फ़िल्हाल उसे लड़की के पास बैठना पड़ा क्योंकि खिड़की के पास वह बैठी हुई थी और केवल उसके पास वाली ही एक सीट ख़ाली बची थी। वह लड़की किसी पत्रिका में गुम थी, गुम रही। नईम की मौजूदगी का कोई असर प्रत्यक्ष रूप से उस पर दिखाई नही दे रहा था। नईम ने पत्रिका के पन्ने पलट्ते हुए देखा कि लड़की के पास भी वही पत्रिका है, फिर न जाने क्या सोच कर इसने अपनी पत्रिका बंद करदी। अब कुछ न करने की सूरत मे, खिड़की से बाहर देखने की कौशिश में पहले उसकी नज़र लड़की के रुख़सार से टकराई, कुछ पल हैरानी मे तकता ही रह गया उसकी सुन्दरता। लड़की के चेहरे पर मुस्कुराहट थी मगर नज़रें पत्रिका पर ही थी। ये मुस्कुराहट नईम की हरकत पर थी या लेख के किसी वाक्य पर; नईम तय नही कर पाया। अपनी झेँप मिटाने के लिये कलाई घड़ी देखने लगा।
नईम अपने मित्र मक़्सूद के घर जा रहा था, क्रिस्मस की एक सप्ताह की छुट्टियाँ बिताने। शहर के एक कॉलेज में वह लेक्चरर था। मक़्सूद कृषि-विझान की पढ़ाई कर गाँव मे अपने खेतो पर नये प्रयोग करने चला आया था।

रास्ते मे एक स्टाप पर बस ठहरी। लड़की ने पत्रिका बंद कर एक अंगराई ली; एक सिमटी हुई सी अंगराई जो उसकी सीट की सीमा तक ही सीमित रही, लेकिन उसकी गौद में रखी हुई पत्रिका नीचे गिरी… नईम के पाँव पर्। वह सॉरी कह कर उठाने के लिये झुकी, नईम भी झुक चुका था- दो सर आपस में टकराएं, सॉरी की दो आवाज़े फ़िर गूंजीं…बस चल पड़ी। अब वो पत्रिका नही पड़ रही थी, खिड़की से बाहर खुले मैदान पर दृष्टि घुमा रही थी। नईम ने दिल में सोचा कि जब नयनाभिराम द्रश्य एवम हरियाली रास्ते में थी तब ये किताब में गुम थी, अब इस बंजर ज़मीन में क्या तलाश कर रही है? बड़ी रूखी तबियत की लगती है। अब वह पुन: अपनी मेग्ज़िन देख रहा था और चोर नज़रों से लड़की को भी। वो अपने हाथ पर बंधी घड़ी देख रही थी, फिर हाथ को धीरे से झट्का, नईम से न रहा गया वह अचानक बोल पड़ा…''सवा दस''। ''जी''! लड़की चौंक कर उससे सम्बोधित हुई। ''जी, हाँ सवा दस बजे है'', नईम ने दोहराया। लड़की सादगी से मुस्कुरादी। अब वो अपने घड़ी बंधे हाथ पर से कोई चीज़ अपने सीधे हाथ से साफ़ कर रही थी। नईम बुरी तरह झेंप गया। उसका ये अनुमान ग़लत निकला कि उसकी घड़ी बंद है। उसने स्पष्टीकरण का सोचा भी मगर वो लड़की फिर से बाहर की तरफ़ देख रही थी। नईम इस हरकत पर स्वयं पर झल्ला गया। लड़कियों की निकटता उसे इसी तरह की घबराहट में मुब्तला कर देती थी।
रानीगाँव के छोटे से बस स्टाप पर उतरने वाले वें दो ही मुसाफ़िर थे, लड़की भी यहीं उतर गयी थी। एक ही घोड़ा-गाड़ी मिली, जिस पर दोनो को सवार होना पड़ा । बस्ती यहाँ से थोड़े फ़ासले पर थी। लड़की ने सवार होने में पहल की थी। जब नईम ने गाड़ीबान को पता बताया तो लड़की ने चौंक कर उसकी तरफ़ देखा क्योंकि वो भी इसी पते पर जा रही थी। रास्ता ख़ामोशी में कटा। ''मन्ज़िले मक़्सूद आ गयी साहब", तांगे वाला एक बंगलेनुमा मकान के सामने गाड़ी रोकते हुए बोला। घर के बाहरी हिस्से पर 'मन्ज़िले मक़्सूद' लिखा हुवा था। मक़्सूद ने बाहर आकर दोनो का स्वागत किया।
''तुम दोनो एक-दूसरे से परिचित तो हो गये होंगे?'', चाय की मेज़ पर मक़्सूद ने ज़रीना से सवाल किया।
''नही'', ज़रीना का मुख़्तसर सा जवाब था।
''एक साथ आये और अभी तक अजनबी हो!'', मक़्सूद के लहजे में आश्चर्य था।
''बात करने के लिये भी कोई उचित कारण चाहिये, तर्क-शास्त्र की स्टूडेन्ट जो थहरी'', यास्मीन ने ज़रीना को छेड़ा। ज़रीना ने नईम की तरफ़ देखा- जैसे कह रही हो कि सफ़ाई तुम ही पेश करो।
''तुमने जवाब नही दिया ज़रीना?'' मक़्सूद ने भी उसे ही छेड़ा, वह उसके तर्को से लुत्फ़ लेना चाह्ता था।
''पहले आवश्यक है कि हम परिचित हो ले, फ़िर बहस होती रहेगी'', ज़रीना बोली, फ़िर नईम को सम्भोधित हुई, ''मुझे ज़रीना कहते है।'' नईम ने भी अपना नाम बताते हुए अभिवादन किया।
''ये मैरी छोटी बहन है'', यास्मीन बोली।
''और ये मैरे बचपन के मित्र और सह्पाथी और अब इतिहास के प्रोफ़ेसर है।'' मक़्सूद ने भी हिस्सा लिया।
''आप बुरा न माने तो आपा की बात का जवाब दूँ'', ज़रीना नईम से कह रही थी।
नईम ने ख़ुशदिली से कहा, ''ज़रूर-ज़रूर''
''सुनो आपा, ये नईम साहब जो है ना, लगता है लड़कियों से घबराते है।''
''तो कौनसी नई बात कही'', मक़्सूद ने अट्ठहास किया।
''आप चुप रहिये'', यास्मीन ने प्यार से डांटा।
ज़रीना ने नईम की तरफ़ देखा, जिसके चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित मुस्कान थी, फिर बोली, ''पहला कारण तो ये कि जब ये साहब बस में सवार हुए तब पहली खाली सीट मैरे पास ही की देखी लेकिन फ़ौरन बैठे नही, बल्कि कोई और सीट तलाश करते रहे। और कोई सीट खाली न मिलने पर मजबूरन मैरे निकट बैठे, दूसरा कारण ये कि आप इस तरह सावधानी से सिकुड़ कर बैठे जैसे कोई लड़की किसी लड़के के पास जा कर बैठ रही हो।''
मक़्सूद ने एक ज़ोरदार क़ह्क़हा लगाया…, नईम कुछ झेंप सा गया…, यास्मीन ने टेबल के नीचे से पाँव को हरकत दी…, ज़रीना के मुंह से 'ऊई' की आवाज़ निकली, लेकिन वह अपनी बात आगे बढ़ाने के लिये फिर तैय्यार थी…
''मैं, इनसे बात शुरू कर भी देती लेकिन ये मैरी बजाय बस में बैठी एक अधेड़ उम्र औरत की तरफ़ आकर्षित दिखे।''
अब तो मक़्सूद उठ खड़ा हुवा। बोला- ''ज़रूर उसका चेहरा रज़िया सुल्ताना से मिलता होगा और ये हज़रत उसके चेहरे पर इतिहास का कोई पन्ना पढ़ रहे होंगे, वरना ये ऐसी हिम्मत कब कर सकते है।''
''नही भाई, मै तो वैसे ही बे-ख्याली में…'' नईम ने बोलना चाहा…
''आपकी बारी बाद में है, नईम भाई'', यास्मीन ने उसे टोका। नईम ने बेचारगी से मक़्सूद को देखा जिसके चेहरे पर शरारत खेल रही थी। फिर उसने ज़रीना की तरफ़ देखा, जैसे पूछ रहा हो और कुछ? वह कुछ सोचती हुई लग रही थी, अचानक बोल पड़ी…''हाँ! वह चाँद बीबी जैसी लगती थी।'' यास्मीन हँसते-हँसते दोहरी हो गयी थी। तभी मक़्सूद को कोई बुलाने आ गया और वह नईम को साथ लिये बाहर चला गया।
रात को खाने की मेज़ पर मक़्सूद ने फिर वही बात उठाई, ''हाँ भाई नईम, तुम क्या कहते हो?''
''आपकी साली साहबा के बारे में मैरा अंदाज़ा बिल्कुल ही ग़लत निकला, ये तो काफ़ी स्मार्ट निकली।''
ये वाक्य नईम ने जबकि बड़ी सादगी से अदा किया था, मगर ज़रीना को इसमे व्यंग का आभास हुवा और फ़ोरन बोल पड़ी, ''मगर मैरा अन्दाज़ा तो बिलकुल सही निकला।''
नईम और मक़्सूद के चेहरे प्रश्नवाचक बने हुए थे मगर दोनो बहनो के चेहरे पर मुस्कान थी। फिर मक़्सूद ने खेती-बाड़ी पर लेक्चर शुरु किया जो खाने के साथ ही समाप्त हुआ।
''आप ने नईम से ज़रीना के बारे में बात की थी?'' रात को बिस्तर पर यास्मीन ने पूछा।
''नही भई तुम पहले अपनी तार्किक बहन से तो बात कर लो, कहीं वो ये न पूछ ले कि शादी करने में क्या तुक है, क्या ज़रूरत है वग़ैरह-वग़ैरह्।"
''मैने बात कर ली है, कहती है विचार करेगी, आप कल नईम की राय तो जान ले- जोड़ी बड़ी अच्छी रहेगी।''
''अच्छी बात है'', उबासी लेकर मक़्सूद ने करवट बद्ली।
नईम और ज़रीना पहली मंज़िल के दो अलग-अलग कमरो में ठहराये गये थे, रात के ग्यारह बज रहे थे, नईम अबतक जाग रहा था, ज़रीना के कमरे की लाईट भी जल रही थी। अचानक नईम ने पास के कमरे से कोई आवाज़ आती हुई सुनी जैसे कोई बात कर रहा हो। बाहर गैलेरी में आकर साथ वाले कमरे की तरफ़ देखा। दरवाज़ा खुला हुवा था, उस पर पर्दा गिरा हुवा था। नईम अपनी जिझासा को न रोक सका, वह पर्दे के ज़रा करीब हुवा, ज़रीना एक आदमकद आईने के सामने खड़ी हुई थी, बिल्कुल एक मुल्ज़िम की तरह जो अदालत में अपनी सफ़ाई पेश करने खड़ा हो। यही उसकी आदत थी कि सोने से पूर्व वह आईने के सामने बैठ कर दिन भर की बातों पर विचार करती और किसी बात के उचित-अनुचित होने पर निर्णय करती।
मनुष्य बहुत सी अवास्तविक बातें भी अपने दिल से मनवा लेता है, खुद को झूठा दिलासा दे लेता है, स्वयं को भ्रमित रखना भी उसे अच्छा लगता है।
हक़ीक़त-पसन्दी ज़रीना के व्यक्तित्व का विशेष अंग रहा है, इसी आधार पर वह फ़ैसला भी किया करती है। खुद को फ़रारियत से बचाने के लिये वह आईने के सन्मुख हो जाया करती है, वह खुद से आंखे मिला कर हक़ीकत पसन्दाना फ़ैसला करती है। इस समय भी वह आईने के सामने खुद से संबोधित थी।
''सीधा-सादा है, बिल्कुल गांव के आदमियों की तरह।'' नईम उसकी आवाज़ सुनकर चौंका। अब वह पर्दे की झिरी मे से उसकी गतिविधि भी देख रहा था।
''मुझे तो नज़र उठा कर अब तक देखा भी नही है, मगर मैं तो ज़रीना तुझे…बिला जिझक देख सकती हूँ… वह अपने अक्स से ही सम्बोधित थी। वह बारीकी से ख़ुद का जायज़ा लेने लगी, फिर ख़ुद का ही मुंह चिढ़ाया… ''एसी कोई सुन्दर भी नही है तू'', मगर साथ ही साथ वह अपने लालिमा युक्त गोरे चेहरे की प्रशन्सा भी किये बिना न रह सकी, उसका चेहरा तो यही बता रहा था। फिर वह एक कुर्सी खींच कर आईने के सामने बैठ गयी, ख़ुद को थोड़ा गम्भीर बनाया- ''ये आपा ने भी अच्छी उलझन पैदा करदी है। अभी तो मैं शादी नही करुंगी।'' शादी शब्द पर वह थोड़ा सा शरमा गई। अक्स में उसने अपने आपको दुल्हन की सूरत में देखा, फिर दोनो हाथो से मुंह छुपा लिया - शरमा कर्। दुल्हन बनने के एहसास ने उसके दिल में अजीब कैफ़ियत पैदा करदी। ''मगर ये आपा भी मानने वाली नही है।'' ज़रीना के लहजे में अब नर्मी आ गयी थी। ''पढ़ा-लिखा है, सुन्दर है, अच्छे खानदान से है, आपा की कोई दलील कमज़ोर भी तो नही है। मगर वह स्मार्ट भी तो नही है! आपा को कौन समझाए?''
''स्मार्ट से तुम्हारा मतलब क्या है?'', वह अपने आप से प्रश्न कर रही थी। अब वह स्मार्ट आदमी की कल्पना कर रही थी- जो तस्वीर मस्तिष्क में उभरी वह नईम ही की थी, द्रश्य भी बस ही का था, वह एक सुन्दर सी लड़की से हंस-हंस कर बातें कर रहा था, उसने आईने पर अपना हाथ घुमाया जैसे वह यह तस्वीर मिटा देना चाहती हो, एक अजनबी लड़की से इतना बेतकल्लुफ़ होना भी अच्छी बात नही- उसने सोचा। अब वह अपना चेहरा घुमा-फिरा कर ख़ुद को शीशे में हर कोण से देख रही थी; जैसे कि वह खुद को समझने की कौशिश कर रही थी। नईम जो कि अबतक पूरा मामला समझ चुका था आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से इस अजूबा लड़की को देख रहा था। अपनी इस हरकत को अनैतिक मानते हुए भी ख़ुद को वहाँ से हटा नही पाया कि ज़रीना की अदालत मे इसके ही भविष्य का फ़ैसला होने जा रहा था। ज़रीना की आवाज़ फिर उसके कानो से टकराई: ''ओह ख़ुदा! मैनें सुबह उन्हें क्या-क्या कह दिया है,मालूम नही मैरे बारे में क्या राय स्थापित की होगी, बस में हो सकता है किसी परिचित को देखने के लिये नज़र घुमाई हो या हो सकता है खिड़की के क़रीब वाली कोई सीट ढूंढ रहे हो, बाहरी द्रश्य देखने को बड़े बेताब जो नज़र आए थे। मगर वह चांद बीबी का क़िस्सा मैनें बेकार ही छेड़ा, उस औरत में उनको भला क्या दिलचस्पी हो सकती थी।, यह मैने अच्छा नही किया। शायद यह मैनें ख़ुद को स्मार्ट ज़ाहिर करने को किया हो……तब तो यह और भी गलत हुआ।'' अब ज़रीना की गम्भीरता में और इज़ाफ़ा हो गया था। उसने ख़ुद से सम्बोधित अपनी तकरीर जारी रखी- ''वो भले ही मक़्सूद भाई के बेतकल्लुफ़ दोस्त हो, मगर आपा के मेहमान भी तो है।"… इस ठंड भरी रात में भी ज़रीना की पेशानी पर पसीने की बूंदे उभर आई। शीशे पर बल्ब की रोशनी से प्रतिबिम्बित होकर इन बूंदो की चमक नईम तक भी पहुंची। पशेमानी के आलम में ज़रीना को अपनी पेशानी पर पसीने की ठंडी बूंदो का एह्सास हुआ। उसे यह सोच कर राहत मिली कि यह पश्चाताप का पसीना है। पसीना पोंछ्ने के लिये उसने अपना हाथ बढ़ाया और फिर रोक लिया-- ''नही यह पश्चाताप का बोझ अपनी पेशानी पर ही रहने दूंगी जब तक कि उनसे क्षमा न मांग लूँ।'' अब वह शांत नज़र आ रही थी, वह सोने जाने के लिये उठी, नईम भी हट चुका था।
सुबह जब नईम बाहर गैलेरी में आया तो नीचे बरान्दे में ज़रीना को गुलाब के फूलों की क्यारियों के निकट खड़ा पाया। वह भी उसी तरफ़ बढ़ गया अब वह क्यारियों के दूसरी तरफ़ जाकर ठीक ज़रीना के सामने खड़ा हो गया था। कंधे तक ऊंची क्यारियों की दूसरी तरफ़ ज़रीना आत्म विभोर होकर गुलाब के फूलों पर ओंस रूपी मोतियों की सुन्दरता निहार रही थी। नईम ने खंखार कर निस्तब्धता तौड़ी, ज़रीना चौंक पड़ी। अभी वह संभल भी न पाई थी कि नईम ने ये शेअरी तीर छोड़ा:-
''फूल के रुख़ पर नमी सी है जो उनके रु-ब-रु,
है निदामत* का अरक़, शादाबी-ए-शबनम* नही।''
*[पश्चाताप, **ओंस की ताज़गी]

ज़रीना का हाथ बौखलाहट में अपनी पेशानी पर चला गया जहाँ रात उसने अपनी निदामत क अर्क साफ़ नही किया था। अचानक हो गयी अपनी इस हरकत का एहसास होते ही वह लज्जा से लाल हो उठी, उसके गालो की लालिमा अब फूलों को भी शरमाने लगी। नईम उसके लज्जा और पश्चाताप में डूबे हुए चेहरे को प्यार भरी नजरों से देख रहा था। ज़रीना को अब वह दुनिया का सबसे स्मार्ट व्यक्ति नज़र आ रहा था। वह अपनी नज़रें उसके चेहरे पर से हटा नही पा रही थी। नईम भी उसकी गुलाबी आंखो से छलकती हुई सुरा पिये जा रहा था। ज़रीना का चेहरा भी उसे डाली पर लगा हुआ एक खिला हुआ गुलाब ही लग रहा था जो माली के हाथों चुन लिये जाने को बेताब दिख रहा था, संयम खोते हुए इस फूल को पाने कि तमन्ना में नईम ने सहसा अपना हाथ बढ़ाया लेकिन किसी फूल के कांटे ने उसके बढ़ते हुए हाथ को रोक दिया। उसकी उंगली पर खून की नन्ही सी बूंद उभर आई। ज़रीना ने उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर खून साफ़ करना चाहा तब नईम ने उसे रोक दिया और बोला- ''यह पश्चाताप का नही मुहब्बत का अर्क है, सूर्योदय की इस लाली की तरह लाल'', उसने निकलते हुए सूरज की तरफ़ इशारा किया। इस दरमियान ज़रीना ने उसकी उंगली से मुहब्बत की इस लाली को अपने दुपट्टे में सोख लिया, मुहब्बत के इस रंग में चुनरी रंग कर वह आनन्दित हो उठी।
अब वह दोनो साथ-साथ चल रहे थे, कांटो और फूलो से भरी हुई इन झाड़ियों के आस-पास जो जीवन की सुख-दुख भरी पगडण्डी का एहसस दिला रही थी। झाड़ियों का सिलसिला ख़त्म हुआ- इन दोनो के दरमियान का फ़ासला भी। अब वें हाथों में हाथ लिये ''मन्ज़िले मक़्सूद'' की तरफ़ जा रहे थे। मक़्सूद और यास्मीन खिड़की में से इन्हें आता देख रहे थे। ''देखो तुम्हारी बहन ने मैरे भोले-भाले दोस्त को फांस ही लिया।'' मक़्सूद ने छेड़ा। यास्मीन कुछ न बोली, वह ख़ुश नज़र आ रही थी; बहुत ख़ुश!

-मंसूर अली हाशमी [रचना काल 1978]




छुट्टी हो गई!

छुट्टी हो गयी

चमकाने* जो देश चली थी अन्ध्यारे में कैसे खो गई ?
चाँद हथेली पर दिखलाया, सत्ता भी वादा सी हो गई।

''नाथ'' न पाये सत्ता को फिर, 'वसुन'' धरा पर क्यों कर उतरे,
प्यादों ने भी करी चढ़ाई , इन्द्रप्रस्थ* की सेना सो गई।

''जस'' को यश दिलवाने वाली, थिंक-टेंक अपनी ही तो थी,
''जिन्नों'' से बाधित हो बैठी अपनों ही के हाथो रो गई।

बैठक लम्बी खूब टली तो, चिंतन को भी लंबा कर गयी,
मोहन* की बंसी बाजी तो , सबकी सिट्टी-पिट्टी खो गई।

प्रतीक्षा अब छोड़ दो प्यारे, गाड़ी कब की छूट चुकी है,
आशाओं के मेघ चढ़े थे , एक सुनामी सब को धो गई,

साठ पार जो हो बैठे है, चलो चार धामों को चलदे,
घंटी भी बज चुकी है अबतो, चल दो घर को छुट्टी हो गई.

*Shining इंडिया, *राजधानी, *bhaagvat

-मंसूर अली हाश्मी

Friday, August 14, 2009

Reducing.....

कम करदी


उनके शीरी थे सुखन हम ने शकर कम करदी,

रक्त का चाप बढ़ा, हमने फिकर कम करदी।


बढ़ते दामो ने बिगाड़ा है बजट क्या कीजे,

तंग जब पेंट हुई, हमने कमर कम करदी।


महंगी चीजों से हुआ इश्क, ख़ुदा ख़ैरकरे,

उनको उल्फत थी उधर, हमने इधर कम करदी।


अब ''फ्लू'' फूला-फला है तो अजब क्या इसमे !

चाँद को पाने में धरती पे नज़र कम करदी।


दीद के बदले सदा* छींकों की सुनली जबसे,
उनके कूंचे से अभी हमने गुज़र कम करदी


*गूँज

-मंसूर अली हाशमी

Thursday, July 30, 2009

ये किस से यारी हो गयी !

बदमूल्य
ये किस से यारी हो गयी !


चाँद से चंदर बने मोहन के प्यारे हो गए,
जो उन्हें प्यारी थी वो [शादी] अल्लाह को प्यारी हो गयी.
अब मशीने फैसला करती है सच और झूठ का,
अब ज़मीरों पर हवस; इमाँ से भारी हो गयी
.


सामना सच का करे ! बस में नहीं हर एक के,
झूठ से पैसे बचे, चैनल जुवारी हो गयी.

किस ''करीने''* से जुदा एक चाकलेटी हो गया
नाम जिसपे गुड़** गया उससे ही यारी हो गयी.

नौ - गजी होती कभी थी इस्मते खातून* अब,
घटते-घटते अब तो ये, छ: फुटिया साड़ी हो गयी.

*करीना= सलीका , गुड़ना= tatoo

Sunday, July 5, 2009

EMPTY WOOD

खाली वुड


I DON'T NEED TO SHOW MY LEG TO WIN NOTICES -Katrina kaif [T.O.I]

बाला* कद्रो के कदरदान जब तलक मौजूद है,
घुटनों या पाओं तलक हरगिज़ न जाना चाहिए.

CENSOR की कैंचिया हो जाये 'बूथी' इससे कब्ल,
बिक्नियों की बिक्रियों को रोक देना चाहिए.

Gay-परस्ती को बढावा देने वाले है यहीं,
निर्बलों को भी कभी नोबल दिलाना चाहिए.

Laughter show सी कहानी अब सफल होती यहाँ,
लेखको को काशी-मथुरा भेज देना चाहिए.

राज-नीति में अदाकारों की अब भरमार है,
शीश महलो से निकल जूते चलाना चाहिए.

आर्ट को फिल्मों में ढूंढे ? कोई मजबूरी नही,
SHORT से भी शोर्ट में अब तो छुपाना चाहिए.

*ऊपरी

Tuesday, June 30, 2009

Blogging & Litrature

"कोई पत्थर से न मारे मैरे दीवाने को"---इंटर-नेट

[अन्तर्जाल और ब्लोगिन्ग पर लेखकीय ज़िम्मेदारी का ज़िक्र पढ़ कर- दिनेशराय द्विवेदीजी की आज की पोस्ट से प्रेरित होकर]

अन्तर्जाल पर अन्तर्द्वन्द के शिकार लोगो की सन्ख्या का तेज़ी से बढ्ना!अन्तर्जाल की कामयाबी ही तो है।स्वयँ का परिचय करवाने को लालायित लोग अगर ये ज़िद न रखे किउन्हे फ़ौरन ही साहित्य्कार का दर्जा मिल जाये, तो वे अधिक सहज हो जाएंगे,दिल की बात ज़्यादा खुल कर कह पाएंगे।
जब आप 'जाल' मे फ़ंसे हुए ही है, तो लाचारी है कि,कुछ पत्थर भी झेलने पड़ जाए।ये फ़ंसने का चुनाव भी तो आप ही ने किया है,आपथोड़ा धीरज धर जाए।
क़ैद की शर्ते [साहित्य का तक़ाज़ा] तो पूरा करना पड़ेगा,उचित शब्दो का प्रयोग कर, संयमित भी होना पड़ेगा,जब तक कि अंतर्द्वंदों से मुक्त, साहित्य के असीमित आकाश मे,उन्मुक्त होकर, ''उड़न-तश्तरी''* बन निर्बाध गति से उड़ान भर सको……


*समीर लालजी


-मन्सूर अली हाश्मी

Monday, June 29, 2009

गुलचीं से फरयाद


''खुशफहमी'' समीर लालजी के दुःख पर [२८.०६.०९ की पोस्ट पर]

चिडियों को अच्छा न लगा,
आपका वातानुकूलित बना रहना,
वें सोचती थी; गुस्साएगे आप,
निकल आयेंगे बगियाँ में,
जब कुछ फूल नष्ट होने पर भी आप न गुस्साए,
और न ही बाहर आये,
तब वे ही गुस्सा गयी.....

वें मिलने आप से आई थी,
फूलो से नहीं,
आपने गर्मजोशी नहीं दिखाई,
अनुकूलित कमरे में,
मन में भी ठंडक भर ली थी आपने.

ऎसी ही उदासीनता का शिकार,
आज का मनुष्य हुआ जा रहा है,
अपना बगीचा उजड़ जाने तक.

काश! चिडियाएँ,
हमारा व्यवहार समझ पाती.
-मंसूर अली हाशमी

Thursday, June 11, 2009

Between The Lines

अजित वडनेरकरजी की आज की पोस्ट "शब्दों का सफर" पर ' हज को चले जायरीन' पढ़ कर...

सवारी शब्दों पर


सफ़र दर सफ़र साथ चलते रहे ,
श-ब-द अपने मा-अ-ना बदलते रहे.

पहाड़ो पे जाकर जमे ये कभी,
ढलानों पे आकर पिघलते रहे.

कभी यात्री बन के तीरथ गए,
बने हाजी चौला बदलते रहे.


धरम याद आया करम को चले,
भटकते रहे और संभलते रहे.


[निहित अर्थ में शब्द का धर्म है,
कि सागर भी गागर में भरते रहे.
''अजित'' ही विजीत है समझ आ गया,
हर-इक सुबह हम उनको पढ़ते रहे.]


-मंसूर अली हाशमी