[ समीर लाल जी के लेख ...... स्पेस- एक तलाश!!!! से प्रेरित होकर....] ढूँदते-ढूँदते...... |
पत्थरों का शहर, पत्थरों के है घर,
'चौड़े' हम और सकड़ी बड़ी रहगुज़र !
नक्श पत्थर पे तहरीर कैसे करूं?
http://aatm-manthan.com
तंग रस्ते यहाँ, आदमी तंग नज़र,
हम भी पहुंचे कहाँ घूमते-घूमते.
ठेलती भीड़ है, कुछ इधर-कुछ उधर,
पार लग ही गए कूदते - कूदते.
शोर बाहर था, सन्नाटा अन्दर मिला,
जब टटोला तो हर सिम्त पत्थर मिला.
बुझ गयी है नज़र घूरते-घूरते.
[सब कहा जा चुका है तो अब क्या लिखू,]
कुछ खरोचा तो, नाख़ून हुए है लहू,थक गया मैं 'जगह'* ढूँदते-ढूँदते. *[space]
--mansoor ali hashmi