Sunday, October 24, 2010

Oracle Open Office | Applications | Oracle

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Wednesday, October 20, 2010

हो..... गया !


हो..... गया !

'ख़तम खेल', सोना हज़म हो गया,
रजत, तांबा जो था भसम हो गया.

पढ़ा ख़ूब 'कलमा दि'लाने पे जीत,
"विलन", सौत* का फिर बलम हो गया.  *[सत्ता]

लगी दांव पर आबरूए वतन,
रवय्या तभी तो नरम हो गया.

चला जिसका भी बस लगा डाला कश,
 'हज़ारेक' करौड़ी चिलम हो गया.

है मशहूर मेहमाँ नावाज़ी में हम,
बियर की जगह, व्हिस्की-रम हो गया.

सितारों से रौशन रही रात-दिन,
ये दिल्ली पे कैसा करम हो गया.

कमाई में शामिल 'विपक्षी' रहे,
'करोड़ों' का ठेका ! क्या कम हो गया? 

निकल आया टॉयलेट से पेपर का रोल*,  
यह वी.आई.पी. 'हगना' सितम हो गया. 

[*एक रोल ४१०० में खरीदा गया?]
-- mansoorali hashmi

Friday, October 1, 2010

अब यह करना है..........

अब यह करना है............
["अयोध्या पर फ़ैसला आने बाद...३०.०९.२०१०]

पढ़ चुके इतिहास अब भूगोल* भी जाचेंगे,
'इक' को कैसे 'तीन' करे, 'इन्साफ' से नापेंगे.

साठ साल तक लड़े है, अब दम थोड़ा ले-ले,
"रहनुमा" से अब तो अपने दूर ही भागेंगे.

धर्म, माल, कुर्सी या शौहरत किसकी चाहत है?
किस-किस की क्या निय्यत थी यह ख़ुद ही आकेंगे.

चाक गरीबां है अपना और हाल भी है बेहाल,
फटे में अब दूजो के यारो हम न झाकेंगे.

तौड़-फौड़, तकरार किया, अब चैन से रहने दो,
निकट हुए मंजिल के अब तो ख़ाक न छानेगे.

*भूगोल= geoagraphy 
mansoorali hashmi

Thursday, September 23, 2010

सेल्फ पोर्ट्रे


सेल्फ पोर्ट्रेट [आखरी 'ट' को न पढ़े अँगरेज़ एसा ही करते है]



यह ब्लॉग विचार शून्यता की उपज यूं है कि इसकी प्रेरणा निम्न टिप्पणी से मिली "विचार शून्य" जी की. ख्याल आया कि एक सचित्र रचना ही लिख दूँ  कि उनकी असमंजसता दूर हो . इस तरह ये "self  portrait " चेहरे  के  विभिन्न अंगो  को  विश्लेषित  करती  हुई  हाज़िर  है . इस तरह मुझे ये  भी मोका मिल गया कि ख़ुद की भी बखिया उधेडू   जबकि मैं आमतौर  पर समाज, देश एवं दुनिया को निशाना बनाता रहता हूँ. 

VICHAAR SHOONYA said...

जनाब मुझे तो बस ये बता दें की ब्लॉग पर लगी दो

तस्वीरों में से आपकी कौनसी वाली शक्ल है आजकल
8 September 2010 11:53 PM 
नोट:- {Pictures have been used for educational and non profit activies. If any copyright is violated, kindly inform and we will promptly remove the picture.???}

इक 'लट' में, दाढ़ी की मैरी बड़ी शरारत है,
झूठ पे लहरा जाना फ़ौरन इसकी आदत है. 
सच सुनकर तो गले ये मेरे लग-लग जाती है.
छुपी हुई इसमें भी इक गहरी मुसकाहट है.




जुबां की अब क्या ज़रूर जबकि ब्लॉग बोले है,
दाँत गए जब से ये चाचा मुंह कम खोले है,
टिप-टिप टिपयाते रहते कुछ मन में आस लिए,
दिन भर में दस बार कोई वो 'mail' भी खोले है.

मूंछ तो अब ऎसी कि जैसे ऐनक होंठो की 
उसको तो बस मिली हुई है बैठक होंठो की,
तांव जो आता, तेज़धार तलवार सी लगती थी,
कभी हुआ करती थी ये तो रौनक होंठो की.  

नाक तो अब ऐसी कि ज्यों छींको का है डेरा,
मक्खी न बैठी थी जिस पर पोतो ने छेड़ा,
गंध कचौड़ी की अब इसको न आ पाती है,
उंचा रहते-रहते ख़ुद को कर बैठी टेढा.



आँखों के ऊपर तो मोटा चश्मा चढ़ बैठा
चटक-मटक सब भूल मियाँ जी अपने घर बैठा,
चाट  चुके  अखबार अभी टी.वी की बारी है,  
laptop  भी सुबह-सुबह गोदी पे चढ़ बैठा.

पेशानी पर सलवट है पर व्यंग्य भाव मुखड़ा!
अब तक देश,समाज,जगत का रोते थे दुखड़ा,
देख आईना आज हुए है गहन धीर-गंभीर,
ख़ुद पर क़लम चली तो ,लिख डाला ये 'टुकड़ा'.

--
mansoorali hashmi

श्रृद्धा और सबूरी

श्रृद्धा और सबूरी 

ब्लोगर, ब्लोगर, ब्लोगर्र,
लिख लिया? शिघ्र पोस्ट कर, 
आएगा कोई तो 'जाल'' पर,
सैंकड़ो है तेरे 'चारा'- गर,
हो न मायूस तू एक पल,
सब्र कर, सब्र कर, सब्र कर.

टिप्पणी, टिप्पणी, टिप्पणी,
एक दो, मुझसे लो दो गुनी,
"बहुत बढ़िया", बहुत ले लिया,
उससे होती नहीं सनसनी,
पोस्ट १२ बजे क्या लगी,
शून्य पर है टिकी टिप्पणी!

क्यों विकल, क्यों विकल, क्यों विकल,
'बाबरी' या जनम-स्थल?
कौन होगा यहाँ कल सफल,
सर से ऊंचा हुआ अबतो जल,
कर ले  मंजूर सब एक हल,
हॉस्पिटल, हॉस्पिटल, हॉस्पिटल!!! 


--
mansoorali hashmi
श्रृद्धा और सबूरी 

ब्लोगर, ब्लोगर, ब्लोगर्र,
लिख लिया? शिघ्र पोस्ट कर, 
आएगा कोई तो 'जाल'' पर,
सैंकड़ो है तेरे 'चारा'- गर,
हो न मायूस तू एक पल,
सब्र कर, सब्र कर, सब्र कर.

टिप्पणी, टिप्पणी, टिप्पणी,
एक दो, मुझसे लो दो गुनी,
"बहुत बढ़िया", बहुत ले लिया,
उससे होती नहीं सनसनी,
पोस्ट १२ बजे क्या लगी,
शून्य पर है टिकी टिप्पणी!

क्यों विकल, क्यों विकल, क्यों विकल,
'बाबरी' या जनम-स्थल?
कौन होगा यहाँ कल सफल,
सर से ऊंचा हुआ अबतो जल,
कर ले  मंजूर सब एल हल,
हॉस्पिटल, हॉस्पिटल, हॉस्पिटल!!! 


--
mansoorali hashmi

Friday, September 17, 2010

ठहर जा ! सोच ले, अंजाम इसका क्या होगा?


ठहर जा ! सोच ले, अंजाम इसका क्या होगा?


ग्यान इसका मेरे दोस्त तुझको कब होगा. 
जो तुझसे ज़िन्दा रहे क्या वो तेरा रब होगा?

सन्देश वक़्त से पहले ही तूने आम किया,
फसाद होगा तो वो तेरे ही सबब होगा.


जो फैसला तेरे हक में हुआ तो ठीक मगर,
तेरा अमल तो तेरी  सोच के मुजब होगा.  

तू शक की नींव पे तअमीर कर भी लेगा अगर,
जवाब इसका भी तुझसे कभी  तलब होगा. 



हरएक शय से ज़्यादा वतन अज़ीज़ अगर, 
जो क़र्ज़ जान पे तेरे अदा वो कब होगा. 

-- mansoorali हाश्मी


Monday, September 13, 2010

येब्बात है........!


येब्बात है........!
[आज तक का non-commercial(?)  धार्मिक Sting Operation!!!]

लो 'बाबा' को भा गयी इक 'बेबी' है फिर से,
मतलब नहीं वह आयी 'इधर' से या 'उधर' से.

'काला' 'सफ़ेद' होना गो मुश्किल बहुत मगर, 
'श्रद्धेय' इसे करते है बस बाएं ही 'कर' से.


टेंडर की ज़रूरत नहीं 'ठेकों' के वास्ते,
'श्रद्धा' के 'सुमन' लाईये भक्ति की 'डगर' से.

आतंकियों की ख़ैर नहीं अबतो देश में,
'महाराज' ढूँढ़ लाएंगे 'संजय' की नज़र से.  

निपटाना हो किसी को तो Gun की नही ज़रूर,
हो जाएगा ये काम अब 'काली' के कहर से.


यह Media  भी ख़ूब गज़ब करता है यारों,
'आश्रम' को भी करता है 'हरम' अपने हुनर से.

दर्शक भी भक्त भी सभी लगते ठगे-ठगे,
T.R.P.  चढ़ी तो 'गुरुजन' के असर से.

mansoorali hashmi

Saturday, September 11, 2010

आपको क्या कष्ट है?

आपको क्या कष्ट है?




One in three Indians 'utterly corrupt': Former CVC

                                                  -Times Of India [10-09-10]
हर "तीन" में से "एक" 'सरासर' भ्रष्ट है,
'दो' की मुझे तलाश है, जो कम भ्रष्ट है!

मिल जाए काश 'एक' जो wORTHY<>Trust है.
अब मैरी स्थिति तो सभी पे स्पष्ट है.

होते हो क्यूँ उदास नहीं कोई दुष्ट है,
इतनी सी बात है कि ज़रा पथ भ्रष्ट है.

है ये नया ज़माना नया इसका शिष्ट है,
धोका उसी को दो उसे जो मित्र इष्ट है.

जिसकी बहुमति है उसे कष्ट-कष्ट है,
करते है अल्प मत को सभी तुष्ट-तुष्ट है.

अब खेल राजनीति है, इसका उलट भी सच,
जो इसमें आ गया है वही हष्ट-पुष्ट है.

दल-गत की स्थिति में अलग से लगे मगर,  [MPees]
INCOME की बात आयी, सभी एक-मुश्त है.

मंथन से जिसने पा लिया अमृत ए हाशमी,
दुनिया तो उसने पाली उसीकी बहिश्त* है.  [*जन्नत]


ब्लॉग जगत के सभी साथियों  को ईद की शुभ कामनाएं.
mansoorali hashmi

Wednesday, September 8, 2010

वाह! ब्लॉगर....

वाह! ब्लॉगर....

बिल्लियाँ बन बैठे है कुछ तो ब्लोगेर्स  आजकल,
जब कोई चूहा दिखा करते सफाचट आजकल.

जब कोई 'बच्चा'* दिखा देते गटागट* आज कल ,  
टीपके, टिपियाके कुछ चढ़ते फटाफट आजकल.

पेन को तलवार सी चमका के रक्खे  हर घड़ी,
धर्म ही को धर्म से कैसी अदावत आजकल.

'फैसले ' पर "फ़ैसला" लिखने को कुछ बेताब है,
तीखी होती जा रही उनकी लिखावट आजकल.

शब्दों की  खेती पे चलने कैंचियाँ तैयार है,
अपना-अपना उस्तरा अपनी हजामत आजकल.

धर्म हो या देश या ईमान या कि अस्मिता,
काठ की तलवार से करते हिफाज़त आजकल.
 
कम लिखो, न भी लिखो तो फर्क कुछ पड़ता नहीं,
खाली टिपयाने से भी मिलती है शोहरत आजकल.

'लेखिकाएं' Bold  होती जा रही है इन दिनों,
लेखको में दिख रही अबतो नज़ाक़त आजकल.

अब ब्लागों के 'ब्लाको' से ही घर बनने लगे,  'Blocks'
हार्द्वेअरी 'सोफ्ट' ही बनता सिलावट आजकल.

शब्द बेदम भी हो जिनकी साईटे गर आकर्षक,
वो भी चर्चा में है जो करते सजावट आजकल.     

ईंट इक की, दूसरे से लेके रोढ़ा इन दिनों,
"आत्म-मंथन" छोड़ क्यूँ करते हिमाकत आजकल?

  [*नया ब्लोगर, * candy]
 
-- mansoorali hashmi