उड़ती हुई गाली
निशाना चूक कर भी जीत जाना,
अजब अंदाज़ है तेरा ज़माना.
चलन वैसे रहा है ये पुराना,
मसल तब ही बनी है ''जूते खाना''.
बढ़ी है बात अब शब्दों से आगे,
अरे Sir ! अपने सिर को तो बचाना.
कभी थे ताज ज़ीनत म्यूजियम की,
अभी जूतों का भी देखा सजाना.
कभी इज्ज़त से पहनाते थे जिसको#,
बढ़ी रफ़्तार तो सीखा उडाना.
शरम से पानी हो जाते थे पहले,
अभी तो हमने देखा मुस्कुराना.
# जूतों का हार बना कर
-मंसूर अली हाशमी