Wednesday, August 25, 2010

कुछ काम करो - कुछ काम करो !

कुछ काम करो - कुछ काम करो !


भ्रष्टाचार   
# "काम न"  करके "वेल्थ" अर्जित कर, [c.w]

   सीख ले आर्ट कुछ तो सर्जित कर.
# दूध का कारोबार 'मंदा' है?
   फिर तो पानी में दूध मिश्रित कर.

हिंदी साहित्य  
# 'बे हयाई' भी अब तो बिकती है,
   'बे वफाई' पे "शोध" मुद्रित कर.
# बहस जब छिड़ गयी 'छिनालो' की,
   कौन  किस से बड़ा ये साबित कर!
# गाली देकर तू मांग ले माफ़ी, 
   छप गया है ग़लत तो एडिट कर.
# लिखना पढ़ना तो सब को आता है,
   'बोल कर' ही तू सब को भ्रमित कर.

समाज
# आश्रमों से ये अब सबक मिलता,
   'भोग ख़ुद', दूसरो को वर्जित कर.
# "बाँध" रस्सी से "दिखला" गहराई!
    पेश्तर "डूबने" से uplift  कर!!
# "देश" पहले कि "धर्म" और "भाषा"?
  सोच ले, इसके बाद खिट-खिट कर.
# हिंदी-उर्दू है दो सगी बहने,
   एक गमले  ही में पल्लवित कर.
# "गांधी-गीरी" अगर चलानी है,
   'मुन्नाभाई' किसी को 'सर्किट' कर
# 'पीपली' को मिला नया जीवन,
  अब, तू 'बरगद' पे ध्यान केन्द्रित कर.
# 'सेक्स वर्कर' भी अब तो है 'उद्धोग',
  कर न, हड़ताल इसको "गर्भित कर".  
# 'चीनी कम' , उम्र हो गयी ज़्यादा,
  'बातों' से अब 'मिठास' सिंचित कर.

राजनीति

# 'मंदिर' 'अफज़ल' बड़े कि सत्ता-सुख!
  प्रकरण ऐसे सारे लंबित कर!!
#  "जूता मारे", गले लगा उसको,
  तू हरीफो को अपने विस्मित कर.
# जीतना है अगर चुनाव तुम्हे,
  बातें सारी कपोल- कल्पित कर.
# राजनीति से हो  'रजो-निवृत्त'?
  "राज्यपाली" से ख़ुद को नियमित कर.
स्वतंत्रता दिवस के महीने में 
अस्पतालों में 'फल' हुए तकसीम,
'सांसदों' को न इससे वंचित कर!
 [ तनख्वाह बढ़ा दे अल्लाह के नाम पर]
-मंसूर अली hashmi

Thursday, August 19, 2010

इस रंग बदलती दुनिया में......

इस रंग बदलती दुनिया  में......

नक़ाबो में कईं चेरे छिपे है,
नज़र है जैसी वैसा ही दिखे है.

कोई 'लाली' से 'आतंकित' किसी को,
'हरा' सब 'सांप' के जैसा लगे है.

जो 'तप' और 'त्याग' का प्रतीक था अब,
वही 'भगवा' क्यों 'संसारी' लगे है.

'सफेदी' थी 'मुक़द्दस'* की ज़मानत,  [*पवित्रता की]
कईं 'धब्बे' अब इस पर भी लगे है.

'गुलाबी' में मोहब्बत की कशिश थी,
क्यों 'कांटो' सी 'निगाहों' को चुभे है?

कभी 'नीला' समंदर दिलरुबा था,
लबालब 'ज़हर'* का दरिया लगे है.   [polluted हो कर]


फ़िज़ा की खुशगवारी क्या हसीं थी,
धुआँ हर सिम्त ये कैसा उठे है?
***********************************************************

चार लाईने हिंदी की आज की साहित्यिक संस्कृति पर:-
तराने, राग थे, किलकारियां थी,
हवस है आग है चिंगारियां है !
ये कैसी "छीना-झपटी" कि उड़ी है,
हमारी अस्मिता की धज्जियां है !!

-मंसूर अली हाशमी 

Wednesday, August 18, 2010

बातों-बातों में

बात निकली तो हरएक बात पे कुछ याद आया!  




 Mansoorali Hashmi

 to उडन तश्तरी.... 


समीर जी प्यारी ग़ज़ल कही आपने, ख़ुद को दिलासा आदमी यूं भी दे लिया करता है, जश्ने आज़ादी के मौके पर अत्यंत ही निराशाजनक तस्वीर पेश की गई ब्लॉगर जगत में, देश की एवं मौजूदा हालात की. कुछ लोगो को तो लगता है कि सब कुछ ही ख़त्म हो गया है. ऐसे में आपने एक अच्छा 
सपना भी देखा है और उसमे कोई अपना भी देखा है:-  "मुद्दतो बाद कोई आने लगा अपने सा,  रात भर ख़्वाब में मैंने उसे आते देखा." बहुत ख़ूब.

                               "मुद्दतो बाद सही  कुछ तो हुआ आपके साथ" 
 आपके हर शेर ने कुछ  कहलवा लिया है, इजाज़त हो तो अपनी पोस्ट पर दाल दूँ आपकी रचना के साथ? 
Starred

Sameer Lal

 to me

हज़ूर


आप भी गज़ब करते हैं-सम्मान का विषय है मेरे लिए और आप को पूछने की कैसे जरुरत आन पड़ी. आपका अधिकार और स्नेह है. जरुर छापें.
बेहतरीन उभरे हैं आपके हर शेर. वाह
सादर  -समीर 
समीर लाल जी                                                                                                                                 हाश्मी                                                                                 
मुद्दतों बाद उसे दूर से जाते देखा                     धूप से आँख मिचोली का भी मौक़ा तो मिला
धूप को आज यूँही नज़रे चुराते देखा                सर्द रिश्तो को कही पर तो पिघलते देखा 

मुद्दतों  बाद हुई आज ये कैसी हालत               ख़ुश्क आँखों को नमी का भी तो अहसास हुआ
आँख को बे वजह आंसू भी बहाते देखा            दर्द बन कर जो इन आंसू को टपकते देखा

मुद्दतों बाद दिखे है वो जनाबे आली                वोट के ही तो सवाली है, "बड़ी बात है यह" 
वोट  के वास्ते सर उनको झुकाते देखा            हाकिमे वक़्त को आगे तेरे झुकते देखा

मुद्दतों बाद खुली नींद तो पाया हमने               नींद आ जाए ये नेअमत है बड़ी चीज़ यहाँ
ख़ुद  को सोने का बड़ा दाम चुकाते देखा           और सोने पे सुहागा तुझे जगते देखा 

मुद्दतों बाद जो लौटा हूँ मैं घर को अपने            खुशनसीबी है कि भाई भी है अपना कोई
अपने ही भाई को दीवार उठाते देखा                 अब जो 'दीवार' है, "उसको भी तो गिरते देखा"

मुद्दतों बाद कोई आने लगा अपने सा                खवाब में ही सही अपनों से मुलाक़ात तो की
रात भर खवाब में मैंने उसे आते देखा               उनके शिकवो को शिकायात को झड़ते देखा

मुद्दतों  बाद किसी ने यूं पुकारा है "समीर"        देर से "हाशमी" पर तुझको पुकारा तो सही 
ख़ुद ही ख़ुद से पहचान कराते देखा                    ख़ुद की पहचान को यूं भी तो निखरते देखा.  
  
Regards.

-मंसूर अली हाश्मी.
 

Sunday, August 15, 2010

लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मैरी..

लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मैरी..


सुलभ जायसवाल की तमन्नाएं ..... "आज़ाद वतन में मुझको आज़ाद घर चाहिए"

पढ़कर , उनके लिए ये दुआइय कलेमात  पेश है:-
[ स्वतंत्रता दिवस पर सभी ब्लॉगर साथियों और देश वासियों को हार्दिक  बधाईयाँ]

शहरे आज़ाद में तुम को घर भी मिले,
घर मिले, साथ में तुमको वर* भी मिले.  [*जोड़ी] 
बे ख़तर  जो हो, वह रहगुज़र भी मिले,
द्वार पर राह तकती नज़र भी मिले.
गूँजे घंटी जहाँ साथ आज़ान के,
कारोबारी वहां हर बशर भी मिले.

हुक्मराँ  हो वफादार अब देश में,
हाथ में हो तिरंगा जिधर भी मिले.
mansoorali hashmi

Saturday, August 14, 2010

समुन्द्र पार से शौहर का ख़त

समुन्द्र पार से शौहर का ख़त 


इन दिनों  पच्चीस साल बाद दो बारा इस मुल्क 'कुवैत' में पहुँच कर लग रहा है कि जहाँ तक आप्रवासियों की स्थिति है अधिक कुछ भी नहीं बदला, जबकि ये देश अब अपनी तरक्की के चरम पर है. ७० के दशक में एक पाकिस्तानी शायर [नाम अब याद नहीं रहा है] जो ख़ुद भी अप्रवासी थे ने यह  नज़्म लिखी थी जो उस वक़्त यहाँ के एक स्थानीय अखबार अरब टाईम्स [इं[ग्लिश/उर्दू]  में छपी थी.अप्रवासियो की व्यथा बयान करती हुई . मैंने भी अपनी श्रीमती को इरसाल करदी थी, नतीजतन वतन वापसी की राह आसान हो गयी थी......पेश कर रहा हूँ:-
तुम्हारा नामा-ए उल्फत मुझे कल मिल गया प्यारी
पढ़ी जब लिस्ट चीज़ों की कलेजा हिल गया प्यारी
वही तकरार तोहफों की वही फरमाइशें सबकी
लिखी है गोया ख़त में सिर्फ तुमने ख्वाहिशें सब की
सभी कुछ लिख दिया तुमने किसी ने जो लिखाया है
फलां ने ये मंगाया है, फलां ने वो मंगाया है.

कभी सोचा भी है तुमने रूपे केसे कमाता हूँ
कड़कती धूप सहता हूँ पसीने में नहाता हूँ
मगर तुम हो कि, रिश्तेदारियां मल्हूज़ रखती हो
लुटा कर अपने ही घर को इन्हें महफूज़ रखती हो
जो पैसा पास हो रिश्ते भी सोये जाग जाते है
बुरा जब वक़्त आता है तो फिर सब भाग जाते है.

मैं पहुंचूंगा तो फिर तुम देखना असली लुटेरो को
गले मिलते है कैसे  देखना फसली बटेरो को 
पहुँच जाएंगे ये सब लोग झूठी चाह में ऐसे
भंडारा बंटने  वाला हो किसी दरगाह में जैसे
कोई कैसे कहे ये बात इन मौक़ा परस्तो से 
रूपे लगते नही इस मुल्क में किबला दरख्तों पे 

तुम्हारी ख्वाहिश ऎसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
मगर कहना खुदा लगती कभी नाकाम हम निकले?
कहा तुमने मुझे जो कुछ वही कुछ कर दिया मैंने 
तुम्हारे अगले पिछलो को भी अब तो भर दिया मैंने
मुझे 'कुवैत'  आके , अब तो दसवां साल है प्यारी
वतन से दूर हूँ कब से शिकस्ता हाल है प्यारी.

मगर तुम हो कि बस फिर भी यही तकरार करती हो
करो इक और एग्रीमेंट यही इसरार करती हो 
हवास ज़र की खुदा जाने कहाँ ले जायेगी हमको
ख़ुशी मिल जुल के रहने की ना मिलने पाएगी हमको
मैरे भी दिल में आता है मैरी इज्ज़त करे बच्चे
थका हारा जो लौटू, मिरी खिदमत करे बच्चे.

मै होता हूँ जो घर पे तो बहुत तस्वे बहाते है
मिरे जाते ही वो कमबख्त गुलछर्रे उड़ाते है
जिसे बिजनेस करना था जुवारी बनता जाता है
बनाना था जिसे पायलट शिकारी बनता जाता है
मिरे ही अपने बच्चे मुझसे यूं अनजान रहते है
बजाए मुझको अब्बू के वो मामूजान कहते है.

खुदा के वास्ते प्यारी यहाँ से जान छुड़वादो 
मिरी औलाद को लिल्लाह, मिरी पहचान करवादो
तुम अपने आप को देखो जवानी ढलती जाती है
तुम्हारी काली ज़ुल्फों में सफेदी बढ़ती जाती है 
 फ़िराक-ओ-हिज्र के सदमे को पत्थर बन के सहती हो
सुहागन हो के भीतुम हैफ! बेवा बनके रहती हो.

हुवा चलना भी अब दुशवार ढांचा बन गया हूँ मैं 
कभी सोना था पांसा, आज तांबा बन गया हूँ मैं
लुटाना छोड़ कर दौलत , किफ़ायत भी ज़रा सीखो
बहुत कुछ बन गया घर का क़नाअत भी ज़रा सीखो
दुआ करना रिहा जल्दी तुम्हारा ख्स्म* हो जाए
सजा ये मुल्क बदरी कि, मिरी अब ख़त्म हो जाए


*शौहर 

Friday, August 13, 2010

ऐसे तो न थे हम!


                              "छिनरा कोई, छिनाल, छलावा लगे कोई "

'छिनाल' पर बहस रुकने क नाम नही ले रही, ख़ूब 'छीछालेदार' हो रही है, तथाकथित बुद्धिजीवी साहित्यकारों की. 'छत्तीस' के आंकड़े वालो को भिड़ने का ख़ूब अच्छा बहाना मिल गया है. 'छाती' ठोंक कुछ 'छुट-भय्ये' भी मैदान में कूद पड़े है. ख़ूब 'छकिया' रहे है एक-दूजे को. इतने 'छक्के' तो T-20 में भी नहीं लगे थे. 'छलनी' जितने 'छिद्र' निकल आये है हमारी साहित्यिक संस्कृति में, जिसकी गरिमा पर गहन चिंतन करते हम अघाते नही. एक सभ्य ! व्यक्ति के 'छिनाल' शब्द प्रयुक्त कर लेने पर सभी को जैसे 'गाली-गलौच'  की 'छूट' सी मिल गयी है.
'छद्मरूप' धारी  टिप्पणी कर्ता भी ख़ूब मज़ा ले रहे है, इस भिड़ंत का. अजीब मन: स्थिती हो रही है इन दिनों, हिंदी साहित्य पढ़ने, मनन करने पर भी शर्म सी महसूस हो रही है. क्या कोई गंभीर साहित्यकार या साहित्य  के शुभ-चिन्तक आगे आकर इस 'छिनाली' संस्कृति से हिंदी साहित्य को मुक्त करवाएगा ? 

-मंसूर अली हाश्मी 
  

Saturday, June 26, 2010

चिकित्सक



चिकित्सक   


[सूखी नदी के तट पर दो मछली शिकारियों के हाथ क्या लगा....?]

तेज़ हवा के झोंके के साथ उड़ता हुआ वो कागज़ उसके चेहरे से टकराया , "ये तो कोई चिठ्ठी है" , सरसरी नज़र डाल कर वह बड़बड़ाया . पहली लाईन ही चौंकाने वाली थी..
''मैरे पास ख़ुदकुशी करने के सिवा कोई चारा नहीं, बगैर दहेज़ विवाह हो नहीं सकता, आज आठवी बार न सुनकर मैरा दिल टूट गया है. मैरे विवाह के लिए,माँ का इलाज बंद करना पड़े, बहनों की पढ़ाई रोक दी जाए, घर गिरवी रखने की स्थिति पैदा हो, यह मैं  हरगिज़ नहीं चाहूंगी. इसलिए मैं न रहूं तो कई समस्याए एक साथ ख़त्म हो जाएगी."  -ज्योति   
सूखी नदी के घाट पर उससे थोड़े ही फासले पर कोई लड़की घुटनों के बीच सर छुपाये बैठी थी, शायद रो रही थी. पास रखे पत्थर  के नीचे से उड़कर यह चिट्ठी उस तक पहुँच गयी है, उसने सोचा. वह उस लड़की की तरफ बढ़ता उससे पहले ही  लड़की ने चिट्ठी उसके हाथ में देख कर उसकी तरफ लपकी.२४-२५ वर्ष की सुन्दर लड़की को अपनी तरफ लपकते देख वह थोड़ा पीछे हटा. "आपने यह चिट्ठी पढ़ी तो नहीं"?  लड़की लगभग चीखते हुए पूछ रही थी. 
"पढ़ भी ली तो क्या हुआ, सूखी नदी में ख़ुदकुशी कैसे करोगी"? 
"उसका मैरे पास इंतेज़ाम है." विपरीत दिशा में भागते हुए लड़की ने अपनी पर्स में से कोई शीशी निकाल कर खोली. उससे भी अधिक फुर्ती दिखाते हुए उस युवक ने उसके हाथ से शीशी छीन कर दूर नदी की तरफ उछाल दी. लड़की उसके पास खड़ी हांप रही थी और वह उसकी सुन्दरता निहार रहा था. युवक आदेश के लहजे में बोला, "बैठ जाओ". व झट से बैठ गयी. 
"यह क्या मूर्खता कर रही थी?"  जवाब देने की बजाय लड़की ने ही सवाल कर डाला...."आप करेंगे बग़ैर  दहेज़ के शादी?" 
"हाँ-हाँ  ज़रूर , अगर तुम्हे आपत्ति न हो?" 
सीधे-सीधे यह  प्रस्ताव पा कर लड़की तो सन्न रह गई. वह शर्माना भी भूल गई, ख़ुशी से आँखे ज़रूर छलक आयी. अब वें चलते-चलते युवक की कार  तक आ गए थे.
कार चलाते हुए युवक बोला,  "मैं एक डॉक्टर हूँ, 'डॉक्टर-पत्नी' ही की तलाश में तीन साल बीत गए, आज तो माँ ने वार्निंग ही दे दी थी, कि तुम मिल गयी."
कितनी सहजता से बात कर रहा है, ज्योति ने सोचा, "सच्चाई  इसे बता ही दूँ."  बोली,  "एक सच्चाई आपको बताना चाहती हूँ, अगर बुरा न माने?"   . 
डॉक्टर ख़ामोश रहा, कईं विचार उसके मन में आकर चले गए, उसे आशंका हुई क़ि गर्भवती होने वाली बात न कहदे, तभी तो वह मरना चाहती होगी? उसे ख़ामोश देख ज्योति ही दोबारा  बोली,  "यूं तो ख़ुदकुशी ही मुझे अपनी समस्या का हल दिख रहा था, मगर आज घाट पर वो सन्देश मैंने जानकर आपकी तरफ हवा  का रुख़ भांप कर प्रेषित किया था आखरी कोशिश  के तौर पर."   "और वह ज़हर की शीशी?"  डॉक्टर यकायक पूछ बैठा.  "वह तो इत्र की शीशी थी, कमाल ज़ोर से फेंका आपने!"
एक ज़ोर के झटके से गाड़ी रुकी, ज्योति ने चौंक कर बाहर देखा, एक बड़ा सा बंगला  था जिसके बाहर 'पशु-चिकित्सक'  का बोर्ड लगा हुआ था. ज्योति के चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थी, डॉक्टर के चेहरे पर इत्मिनान था, वह ज्योति की हालत का आनंद लेते हुए बोला, "जानवरों से डर तो नहीं लगता ना?"
ज्योति से कोई जवाब नहीं बन पड़ा.  ज्योति को वही बैठा छोड़,  डॉक्टर बंगले में प्रविष्ट हुआ , लौटा तो उसके हाथो में एक सफ़ेद रंग का छोटा सा पप [pup] था जिसे पिछली सीट पर बिठा  गाड़ी आगे बढाई.








 हिम्मत जुटा कर ज्योति ने बोलने के लिए मुंह खोला....."तो आप.."     "जानवरों के डॉक्टर है".......वाक्य पूरा किया डॉक्टर ने..एक ज़ोरदार अट्टहास करते हुए.
ज्योति कुछ समझ पाती इससे पहले गाड़ी फिर एक झटके के साथ रुकी... डॉक्टर मनोज मिश्र  M.B.B.S., MD के बंगले के सामने. अब डॉक्टर मनोज ने ज्योति की तरफ वाला दरवाज़ा खोल उतरने का आग्रह किया. भौंचक्क सी ज्योति मशीन की तरह चलती-चलती साथ होली. 
दरवाज़े पर खड़ी माँ कह रही थी, "बेटा, बिजली गुल हो गयी है."  "माँ, चिंता मत करो, मैं ज्योति ले आया हूँ." कहकर ज्योति की माँ से भेंट करवाई. आश्चर्यचकित ज्योति दमक-दमक गई.  
-mansoorali hashmi

Monday, May 31, 2010

आलूबड़ा



अजित वडनेरकर जी के 'शब्दों के सफ़र'  पर आज ३१-०५-१० को ये नाश्ता मिला :-
[
इसको 'बड़ा' बन दिया इन्सां की भूख ने, 

'आलू' वगरना ज़ेरे ज़मीं खाकसार था.]


आलूबड़ा 

छोटा नही पसंद, 'बड़ा' खा रहे है हम,
खाके, पचाके 'छोटा' ही बतला रहे है हम.


घर है, न है दुकान, सड़क किसके बाप की!
'वट' वृक्ष बनके फैलते, बस जा रहे है हम.

'चौड़े' गुजर रहे है क्यों  'पतली गली' से अब!
कब से इसी पहेली को सुलझा रहे है हम.

कुछ इस तरह से कर लिया फाकों का अब इलाज,
मजबूरियों को पी लिया, ग़म खा रहे है हम.

इसको सराय मान के करते रहे बसर,
थक हार कर अखीर को घर जा रहे है हम.

mansoorali hashmi

Sunday, May 16, 2010

बड़ा कौन ?


बड़ा कौन ?

किस 'बला' में है मुब्तला 'गीरी'*       [ब्लागीरी]
झाड़ या फूंक ही करा लीजे.

फंकी चूरण की लो जो पेट दुखे,
सर दुखे बाम ही लगा लीजे.

समझ नही आता तकलीफ कहाँ पर है? हिन्दी ब्लागिंग में जो उठा-पटक चल रही है , अफ़सोस क विषय है. अपनी खामोशी कुछ इस तरह तौड़  रहा हूँ:-

'गल' में 'गू' आ गया है क्या कीजे?
थूंक कर चाटना, सज़ा कीजे.


किसको छोटा किसे बड़ा कीजे.
सब बराबर है अब मज़ा कीजे

बलग़मी  है सिफत बलागों की,
थूंक कर साफ़ अब गला कीजे.

जो है लेटा उसे बिठाना है,
बैठने वाले को खड़ा कीजे.

यूं तो ठंडक थी 'उनके' रिश्तो में, 
बढ़ गया ताप अब हवा कीजे.


ख़ामशी ओढ़ने से क्या मतलब,
दिल दुखा है अगर दवा कीजे.


हर बड़े पर ये बात वाजिब है,
जो है छोटा उसे क्षमा कीजे. 

फिर न हो पाए ऎसी उलझन अब,
आइये मिलके सब दुआ कीजे.

mansoorali हाश्मी
http://atm-manthan.com

Thursday, May 13, 2010

शर्म हमको मगर नही आती....


शर्म हमको मगर नही आती....

फटाफट इसमें* मिल जती है शोहरत,      [*T-20] 
जो हारे भी तो खुल जाती है किस्मत.

हाँ ! मैंने दी है थाने  पर भी रिश्वत,
न देता, कैसे बनता 'पास पोरट' ?

हो रिश्वतखोर या आतंकी,नक्सल,
वे दुश्मन देश के है यह हकीक़त.

''गयाराम'',  आ गया सत्ता की ख़ातिर,
है 'खंडित' 'झाड़' की हर शाख़ आह़त.

बदलते जा रहे पैमाने* देखो,            [*मापदंड]
उसे अपनाया जिसमे है सहूलत*.       [*सुविधा]    

जो चित में जीते, पट में भी न हारे,
इसी का नाम है यारो सियासत.

'यथा' अब 'स्थिति' भाती है क्योंकर? 
कभी सुनते थे हरकत में है बरकत.

मोहब्बत का सबक उनसे* भी सीखा,     [*शाहजहाँ]
दिलो में लेके जो* आए थे नफ़रत.         [*मुग़ल] 

है दुश्मन घर में, बाहर भी हमारे,
न संभले गर तो हाथ आयेगी वहशत.

रखा था 'गुप्तता' की जिनको ख़ातिर,
उसी ने बेच डाली है अमानत.
 
गरीबी की अगर रेखा न होती,
चमकती कैसे नेताओं की किस्मत.

वो PC हो मोबाइल या के टी वी,
नहीं मिलती है अब आँखों को राहत.

फसानो में है गुम, माज़ी के क्यों हम?
ज़माना ले रहा है देखो करवट.

फअल* शैतानी है जबकि हमारे,        [*कर्म] 
पढ़े जाते है किस पर हम ये लअनत !

ब्लोगिंग पर ही कुछ बकवास कर ले,
जो चल निकले तो मिल जाएगी शोहरत. 
mansoorali hashmi