[अली सय्यद साहब के ब्लॉग "उम्मतें'' पर ..
तू ही तू : तेरा ज़लवा दोनों जहां में है तेरा नूर कौनोमकां में है.....
में स्त्री गौरव गाथा का ज़िक्र पढ़ कर मुझे भी अपनी 'वो-ही-वो' याद आगई और ये रच गया है.... ]
'वो-ही-वो'
[राज़ की बातें]
दिन में; मैं उसके बिस्तर पर सोता हूँ,
दोनों बिस्तर अलग ठिकानों पर लगते,
खर्राटे फिर भी डर-डर के भरता हूँ .
वो पढ़ती * रहती; मैं लिखता रहता हूँ! *[धार्मिक किताबे]
वो छुपती है और मैं 'छपता' रहता हूँ.
थक गए घुटने तो अब कुर्सी पाई ,
वर्ना अब तक चरणों में रहती आयी !
वो तो मैं ही कुछ ऊंचा अब सुनता हूँ,
चिल्लाने की उनको आदत कब भायी !
वो रोती तो मैं हंस देता था पहले,
अब वो हंसती और मैं रोता रहता हूँ.
नही हुए बूढ़े, लेकिन अब पके हुए है,
55-62 सीढ़ी चढ़ कर थके हुए है ,
पहले आँखों से बाते कर लेते थे,
अबतो चश्मे दोनों जानिब चढ़े हुए है.
नज़र दूर की अब मैरी कमज़ोर हुई तो,
बस 'वो-ही-वो' हर सू अब तो दिखा किये है.
-मंसूर अली हाश्मी