Tuesday, September 7, 2010

लेने के देने


To,अली साहब , आपकी हल्दी का रंग कहाँ-कहाँ  और कैसे-कैसे लगा टिप्पणियों से जानकर आश्चर्य मिश्रित उल्लास में यह लिख बैठा हूँ!  आप आज्ञा दे तो पब्लिश करदूं? राजेंद्र  Swarn Kaar जी की टिप्पणी भी  प्रेरणादायक रही.

From, अली साहब:



अली सैयद

 to me
show details 10:25 AM (54 minutes ago)
मंसूर अली साहब ,
आदाब अर्ज़ है ,
जरुर पब्लिश कीजियेगा , मुझे खुशी होगी !
अली
2010/9/5 Mansoorali Hashmi <mansoor1948@gmail.com>

लेने के देने 

ये हल्दी लगा खत मेरा मुंह स्याह कर गया होता ...?


[ख़त की हसरत तो पूरी नहीं हुई, मगर हल्दी रंग ज़रूर लाई......वह इस तरह कि...."उस" मकान के इस तरफ तो अली साहब थे और दूसरी तरफ {तसव्वुर कीजिए} जो होस्टल था उसकी खिड़की में से एक श्री  एस.कार  ने दो मकानों की फेंसिंग के बीच की हलचल को भांप लिया था, और जब अली साहब हल्दी लगा ख़त हाथ में लिए बागीचे में अपने पोधो की नब्ज़ टटोल रहे थे तब वह भ्रमर रूपी एस.कार वह हल्दी लगी चिट्ठी की नब्ज़ टटोल के उड़ चुका था जब तक कि आप पलटते. "पूरे तीन दिन" उसने भी नज़रे गाड़े रखी उसने अपने पड़ोस और उसके पड़ोसी पर  (लिखना-पढ़ना भूलकर) . कोई प्रतिक्रिया न देख कर उसने अपने ज़हन में उस ख़त के मज़मून को चित्रवत याद कर के दोहराया:-





नमस्ते ,
मेरे से आप बात करने से क्यों डरते हैं , मैं अच्छी नहीं हूं क्या , तीन दिन से आप मेरी आँख में हैं , आप भी मेरे विषय में किसी - किसी को कुछ बोलते रहते हैं क्या . इसलिए आप मुझसे बात करने के लिए डरते हैं . यह पत्र मैं बहुत हिम्मत कर के लिख रही हूं  !  मैं आपके लिए बहुत हिम्मत वाली हूं लेकिन किस्मत वाली नहीं ,  आपसे बात करने के लिए मन है एक मिनट आप समय देंगे तो मैं आप को बता दूंगी  कि मैं अच्छी हूं या बुरी !  इस पत्र को पढ़ने के बाद भी अगर आपके पास दो मिनट का वक़्त नहीं तो मैं आपको दुबारा मुंह नहीं दिखाउंगी अगर मुझसे कोई गलती हुई होगी तो मुझे माफ करेंगे ! 

...और Helping Hand आगे बढ़ाने का फ़ैसला  कर और उचित अवसर देख आंगन में किसी की प्रतीक्षारत 'भाभीजी' को नमस्कार कर प्रवेश कर ही लिया.
एस.कार:   "नमस्ते भाभीजी."
पड़ोसन:    "सविता है मैरा नाम, कहिये?"
एस.कार:    "नहीं, कुछ नहीं, पड़ोस में होस्टल में रहता हूँ, आज कोलेज                 की छुट्टी है , सोचा आपसे hello करता चलू"
सविता:       "अच्छा, आईये", उसने लान में  रखी कुर्सी की तरफ इशारा करके कहा.

श्रीमान को तो मन की मुराद मिली, लपक लिए. सविता भी बैठते-बैठते रुक गयी, चाय का पूछने के लिए ठहर गयी, प्रत्युत्तर में एस.कार ने कहा....."आपके घर से तो कोफ़ी की महक उठती रहती है!"

सविता:       "सही कहा, हम लोग तो कोफ़ी ही पीते है, मगर इधर के लोग शायद चाय ज़्यादा पसंद करते है?... तो अब चाय की भी आदत बना ली है."
एस.कार:      "किस-किस को जानती है आप इधर, इस कोलोनी में?"
सविता:       "In fact, किसी को भी नहीं, एक पड़ोसी [पास के मकान  की तरफ इशारा करते हुए] है, वह भी नज़रे चुराए रहते है, हम साऊथ वाले ऐसे कोई अजीब प्राणी तो नहीं!"
एस.कार:       "नहीं-नहीं, एसी बात नहीं, बल्कि आप तो हिंदी हम से भी अच्छी बोल लेती है."

सविता चाय बनाने चली गयी,  अब एस.कार की जिज्ञासा बढ़ गयी थी, उसे घर के अन्दर बुलाने की बजाय, बाहर से ही चाय पिला कर निपटा देने वाला मामला लगा. वह भी साथ-साथ घर में प्रवेश कर गया यह कहते हुए कि "आप तकलीफ नहीं करे, चाय फिर कभी."
सविता पीछे मुड़ कर मुस्कुराई, "तकलीफ तो मैं आपको दूंगी, अच्छा है आज आपकी छुट्टी का दिन है."

एस.कार का दिल बल्लियों उछलने लगा, उससे कुछ बोलते न बना. सविता ने चाय बाहर लान में ला कर ही पिलायी, इस दरमियान कुछ इस तरह की बाते हुई:-
सविता:      "बात दरअस्ल यह है कि, यहाँ ट्रान्सफर से पहले मैरे हाथो एक बड़ा एक्सीडेंट हो गया था, मुआवज़े में काफी बढ़ी रक़म चुकाना पढ़ी, कर्ज़ा भी हो गया है, इसलिए पति देर रात तक काम कर क़र्ज़ चुकाने में जुटे हुए है, मैं यहाँ अनजान हूँ कोई भी छोटे-बड़े काम के लिए अटक जाती हूँ."

"ओह!" ठंडी सांस भरते हुए एस.कार ने कहा, "मैरे लायक कोई काम हो तो ज़रूर बता दिया करे."

सविता:       एसा ही एक छोटा सा काम हफ्ते भर से अटका पड़ा है, पति महोदय को तो फुर्सत ही नहीं मिलती और मकान मालिक भी टाले जा रहा है , आज तुम साथ हो तो दुरस्त कर ही लेते है."

एस.कार:      "क्यों नही- क्यों नही", चाय का कप ख़ाली करते हुए, जोश में साथ हो लिया, घर के पिछवाड़े की तरफ, अजीब सी गंध आ रही थी उस तरफ से. सविता ने नाक ढांपने के के लिए साड़ी पल्लू कुछ ज़्यादा ही ऊंचा उठा लिया था[शायद बेख़याली में], इसलिए एस.कार अपनी नाक की चिंता ही नहीं कर पाया. अब वें सेफ्टी टेंक के पास खड़े थे, जहाँ एक पाईप से बदबूदार पानी रिस रहा था. सविता ने पाइप की तरफ इशारा करते हुए कहा इसी को  Replace करना है. pvc पाईप है वैसे ही जुड़ जाएगा . नया पाईप भी ये रखा हुआ है." अब तक एस.कार के होश ठिकाने आ गए थे, बोला, "बस इतनी सी बात है, मै अभी आया अपने दोस्त को फोन करके वो मेरी राह देख रहा होगा."  सविता ने अपना मोबाईल उसकी तरफ बढ़ा दिया, दूसरे हाथ से वह नाक ढांपे हुए थी.  
बौखलाहट में ११ डिजिट दबाया हुआ मोबाईल जब नहीं जुड़ा तो सविता ने पूछ ही लिया "आपने तो प्रदेश के बाहर फोन लगाया लगता है?"
फोन काट कर सविता को थमाते हुए, जल्दी से पाईप जोड़ कर भागने में ही उसको अपनी भलाई लगी. अब तो वह भी बदबू से बचने के लिए अपनी जेब में रूमाल तलाश रहा था. सविता ने अपना लेडिस रूमाल उसको थमा दिया जो खुश्बू से भरा हुआ था. औज़ार का बॉक्स भी पास ही रखा हुआ था, बचने का कोई बहाना उपलब्ध नहीं था. जैसे तैसे पाईप जोड़ कर , शुक्रिया वसूल किये बगैर भाग ही रहा था कि सविता ने अपने रूमाल की याद दिलायी, सो वह उसे लोटा कर "खाली हाथ" बाहर लौट आया.

फेंसिंग के पास खड़े पड़ोसी सज्जन उसे हडबडाहट में भागते देख कर जाने क्या-क्या अनुमान लगा रहे थे!!!     

4 comments:

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

मंसूर साहेब,
आदाब!
हा हा हा हा हा हा हा
हा हा हा हा हा हा हा
हा हा हा हा हा हा हा
हा हा हा हा हा हा हा
(अनुमान वाली बात ख़ास पसंद आयी!!!)
आशीष
--
बैचलर पोहा!!!

नीरज गोस्वामी said...

लाजवाब कहानी...पंकज सुबीर जी की कहानी मास्टरजी याद आ गयी...मौका लगे तो उनके ब्लॉग पर जा कर जरूर पढियेगा...पढ़ कर आप मुझे शर्तिया दुआएं देंगे...
नीरज

उम्मतें said...

मंसूर अली साहब ,
खत के नीलेपन में छुपे गुलाबीपन को एस कार के मत्थे मढ़ दिया आपने ! कथा नई नकोर हो गयी :)

विष्णु बैरागी said...

वाकई में मजा आ गया। हम इसीलिए तो आपक मुरीद हैं हाशमीजी।