Thursday, June 11, 2009

Between The Lines

अजित वडनेरकरजी की आज की पोस्ट "शब्दों का सफर" पर ' हज को चले जायरीन' पढ़ कर...

सवारी शब्दों पर


सफ़र दर सफ़र साथ चलते रहे ,
श-ब-द अपने मा-अ-ना बदलते रहे.

पहाड़ो पे जाकर जमे ये कभी,
ढलानों पे आकर पिघलते रहे.

कभी यात्री बन के तीरथ गए,
बने हाजी चौला बदलते रहे.


धरम याद आया करम को चले,
भटकते रहे और संभलते रहे.


[निहित अर्थ में शब्द का धर्म है,
कि सागर भी गागर में भरते रहे.
''अजित'' ही विजीत है समझ आ गया,
हर-इक सुबह हम उनको पढ़ते रहे.]


-मंसूर अली हाशमी

4 comments:

Vinay said...

साहब, बहुत ख़ूब

Science Bloggers Association said...

बहुत खूब लिखा है आपने। मुबारकबाद कुबूल फरमाएं।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बहुत ख़ूब,आप का ब्लाग अच्छा लगा...बहुत बहुत बधाई....

अजित वडनेरकर said...

हाशमी साहब,
आपकी इन भावनाओं की अभिव्यक्ति तो टिप्पणी के रूप में ही पढ़ ली थी, इस रूप में भी इसे देख लिया।
सफर में साथ चलने का
शुक्रिया बहुत बहुत..