नाज़ुक हार्ड वेअर
Hard ware? पर नाज़ुक है बहुत,
kid की तरह ही संभाले रक्खो।
गर्म होता है प्रोसेसर तो बहुत,
पंखा इस पर भी झलाये रक्खो।
बोर्ड माँ[mother board] का है, ज़रा Take Care,
Memory से भी संवारे रक्खो।
धूल खाने की नही है आदत,
वातनुकूल फ़िजा में रक्खो।
p.c. ,सोरकार का नही है यह,
मैजिक डंडे से बचाकर रक्खो।
Bill के 'गेटो' से गुज़र है इसकी,
जैब भी अपनी बचाये रक्खो।
-मन्सूर अली हशमी
Friday, August 29, 2008
Mobile Lyric
मोबाईल-दोहे
# पहले हम मिस को काँल करते थे,
मिस[ड] अब हम को काँल आते है।
------------------------------------------------------------------------
# वो तो नम्बर ही खर्च करते है,
हम Recharging पे नोट भरते है।
------------------------------------------------------------------------
# एक ही Ring [अंगूठी] पे साठ पार हुए,
कईं टनो [Tones] से अब मन नही भरता।
-------------------------------------------------------------------------
# नींद बे पर ही उड़ गयी दिन की,
झोंका लगते ही थरथराते [Vibrating mode] है।
-----------------------------------------------
# मिस जो हमने न काँल की होती,
कितनी चिडियाएँ डाल पर होती?
---------------------------------------------
# दाने अब क्यों बिखेरे बैठे हो?
Net Work Area से बाहर हो!
---------------------------------------------------------------------------
-मन्सूर अली हाशमी
# पहले हम मिस को काँल करते थे,
मिस[ड] अब हम को काँल आते है।
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# वो तो नम्बर ही खर्च करते है,
हम Recharging पे नोट भरते है।
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# एक ही Ring [अंगूठी] पे साठ पार हुए,
कईं टनो [Tones] से अब मन नही भरता।
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# नींद बे पर ही उड़ गयी दिन की,
झोंका लगते ही थरथराते [Vibrating mode] है।
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# मिस जो हमने न काँल की होती,
कितनी चिडियाएँ डाल पर होती?
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# दाने अब क्यों बिखेरे बैठे हो?
Net Work Area से बाहर हो!
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-मन्सूर अली हाशमी
litrature, politics, humourous
Technical Poetry
Thursday, August 28, 2008
अक्कल दाढ़/WISDOM TEETH
अक्कल दाढ़
अब जो 'अक्कल की दाढ़'* आयी है,
यह blue tooth मेरे भाई है।
हो के दांतो पे यह सवार मैरे,
virus अपने साथ लायी है।
दांत तो मुझको फ़ल खिलाते है,
यह तो मुझको ही काट खायी है।
गुप्त file की तरह खुल बैठी
michel Angelo ताई है?
Dentist कह्ते है delete करो,
यह तो अपनी नही पराई है।
मैरी संसद मे जब से आ बैठी,
'मत' अविशवास ही का लायी है।
'हाशमी' सोचते हो क्यों इतना?
यह किसी और की लुगाई है।
तर्क करदो तलाक दे डालो,
तीन लफ़्ज़ो* की तो दुहाई है।
मन्सूर अली हाशमी
*wisdom teeth
*तलाक,तलाक,तलाक
अब जो 'अक्कल की दाढ़'* आयी है,
यह blue tooth मेरे भाई है।
हो के दांतो पे यह सवार मैरे,
virus अपने साथ लायी है।
दांत तो मुझको फ़ल खिलाते है,
यह तो मुझको ही काट खायी है।
गुप्त file की तरह खुल बैठी
michel Angelo ताई है?
Dentist कह्ते है delete करो,
यह तो अपनी नही पराई है।
मैरी संसद मे जब से आ बैठी,
'मत' अविशवास ही का लायी है।
'हाशमी' सोचते हो क्यों इतना?
यह किसी और की लुगाई है।
तर्क करदो तलाक दे डालो,
तीन लफ़्ज़ो* की तो दुहाई है।
मन्सूर अली हाशमी
*wisdom teeth
*तलाक,तलाक,तलाक
litrature, politics, humourous
Gazal,
Technical Poetry,
अक्कल दाढ़
Wednesday, August 27, 2008
MODERN AGE
कल-युग !
डांट [DOT] कर जो काम [COM]करवाओ तो होता आजकल,
डांट [DOT] कर जो काम [COM]करवाओ तो होता आजकल,
मेल [MAIL] से ही तो मिलन लोगो का होता आजकल।
याहूँ का पहले कभी 'जगंली' मे होता था शुमार,
अब तो हर टेबल के उपर [DESKTOP] मौजूद होता आजकल्।
पहले बालिग़ [व्यस्क] होने को दरकार थे अठारह साल,
नन्हा-मुन्ना भी यहाँ होता ब्लाँगर आजकल्।
मन्सूर अली हाशमी
याहूँ का पहले कभी 'जगंली' मे होता था शुमार,
अब तो हर टेबल के उपर [DESKTOP] मौजूद होता आजकल्।
पहले बालिग़ [व्यस्क] होने को दरकार थे अठारह साल,
नन्हा-मुन्ना भी यहाँ होता ब्लाँगर आजकल्।
मन्सूर अली हाशमी
litrature, politics, humourous
computer age,
Technical Poetry
Monday, August 25, 2008
भद्रता/Gentility
थप-थप-थप,
कन्क्रीट की आफ़िस पे लगे शीशे के बंद दरवाज़े को थपथपाने की आवाज़,
साधारण वेश में एक परेशान बालक की छबि, हिलते हुए होंठ, पुनः थप-थप…
उंगली का इशारा पाकर, पट खोल, केवल सिर ही अन्दर करने का साहस जुटाटे हुए…कुछ बोलने की असफल कोशिश !
इससे पहले कि शब्द उसकी जिव्हा का या जिव्हा उसके शब्दो का साथ दे, मैंने , अपने हाथ में बची हुई, संतरे की दौनो फ़ाँके उस बालक के हाथ पर रख दी!
(सचमुच, मेरे पास उस वक्त 'छुटटा' कुछ नही था)
आश्चर्य मिश्रित दर्द का भाव उसके चेहरे पर आकर चला गया।
"कस्तूरी, बाबूजी... कस्तूरी लोगे ?"
उपर से नीचे तक उस बालक को देखते हुए,
शब्द खर्च करने की भी आवश्यक्ता न समझते हुए, इन्कार में सिर हिला दिया।
चेहरे की मायूसी और गहरी हो गयी,
दरवाज़ा धीरे से बंद हो गया।
बंद होते दरवाज़े में से एक तीव्र मगर मधुर सुगंध कमरे में घुस आई, पूरा कमरा महक उठा, मन हर्ष से भर गया।
यकायक कस्तूरी और उस बालक का विचार आया,
बाहर लपका, सुनसान सड़क पर कोई न था।
सामने वृक्ष तले, सदा बैठे रहने वाला बूढ़ा बिखारी,
संतरे की दो फ़ाँको को उलट-पलट कर आश्चर्य से देख रहा था।
शायद पहली बार मिली हुई ऐसी भीख को,
और मैं ग्लानिवश! फिर ऑफिस के कमरे में बंद हो गया।
कस्तूरी की महक तो क्षणे-क्षणे क्षीण हो लुप्त हो गई,
मगर उस बालक की याद की महक अब भी मस्तिष्क में बसी हुई है,
जिसने मेरी दी हुई सन्तरे की फ़ांके सिर्फ़ इसलिये स्वीकार कर ली
कि मेरी दान-वीरता का भ्रम न टूटे…
…या अपने हाथ पर सह्सा रखदी गई दया की भीख इसलिये वापस नही की कि सुसज्ज कक्ष में बैठा हुआ तथाकथित भद्र-पुरुष ख़ुद को अपमानित मह्सूस न करे!
भद्र तो वह था, जो ज़रूरतमंद तो था... भिखारी नही,
ख़ुश्बू बेचना चाह्ता था, ठगना नही।
'ठगा' तो मैं फिर भी गया, अपने ही विवेक से,
जिस विवेक ने मुझे तथाकथित बुद्धिजीवी (?) की श्रेणी में पहुंचा रखा है।
परन्तु मैं बहुत पीछे रह गया हूँ उस बालक से जो ख़ुश्बू का झोंका बन कर आया और मुझसे बहुत आगे निकल गया है!
मन्सूर अली हाशमी
कन्क्रीट की आफ़िस पे लगे शीशे के बंद दरवाज़े को थपथपाने की आवाज़,
साधारण वेश में एक परेशान बालक की छबि, हिलते हुए होंठ, पुनः थप-थप…
उंगली का इशारा पाकर, पट खोल, केवल सिर ही अन्दर करने का साहस जुटाटे हुए…कुछ बोलने की असफल कोशिश !
इससे पहले कि शब्द उसकी जिव्हा का या जिव्हा उसके शब्दो का साथ दे, मैंने , अपने हाथ में बची हुई, संतरे की दौनो फ़ाँके उस बालक के हाथ पर रख दी!
(सचमुच, मेरे पास उस वक्त 'छुटटा' कुछ नही था)
आश्चर्य मिश्रित दर्द का भाव उसके चेहरे पर आकर चला गया।
"कस्तूरी, बाबूजी... कस्तूरी लोगे ?"
उपर से नीचे तक उस बालक को देखते हुए,
शब्द खर्च करने की भी आवश्यक्ता न समझते हुए, इन्कार में सिर हिला दिया।
चेहरे की मायूसी और गहरी हो गयी,
दरवाज़ा धीरे से बंद हो गया।
बंद होते दरवाज़े में से एक तीव्र मगर मधुर सुगंध कमरे में घुस आई, पूरा कमरा महक उठा, मन हर्ष से भर गया।
यकायक कस्तूरी और उस बालक का विचार आया,
बाहर लपका, सुनसान सड़क पर कोई न था।
सामने वृक्ष तले, सदा बैठे रहने वाला बूढ़ा बिखारी,
संतरे की दो फ़ाँको को उलट-पलट कर आश्चर्य से देख रहा था।
शायद पहली बार मिली हुई ऐसी भीख को,
और मैं ग्लानिवश! फिर ऑफिस के कमरे में बंद हो गया।
कस्तूरी की महक तो क्षणे-क्षणे क्षीण हो लुप्त हो गई,
मगर उस बालक की याद की महक अब भी मस्तिष्क में बसी हुई है,
जिसने मेरी दी हुई सन्तरे की फ़ांके सिर्फ़ इसलिये स्वीकार कर ली
कि मेरी दान-वीरता का भ्रम न टूटे…
…या अपने हाथ पर सह्सा रखदी गई दया की भीख इसलिये वापस नही की कि सुसज्ज कक्ष में बैठा हुआ तथाकथित भद्र-पुरुष ख़ुद को अपमानित मह्सूस न करे!
भद्र तो वह था, जो ज़रूरतमंद तो था... भिखारी नही,
ख़ुश्बू बेचना चाह्ता था, ठगना नही।
'ठगा' तो मैं फिर भी गया, अपने ही विवेक से,
जिस विवेक ने मुझे तथाकथित बुद्धिजीवी (?) की श्रेणी में पहुंचा रखा है।
परन्तु मैं बहुत पीछे रह गया हूँ उस बालक से जो ख़ुश्बू का झोंका बन कर आया और मुझसे बहुत आगे निकल गया है!
मन्सूर अली हाशमी
litrature, politics, humourous
Gentility,
morality,
Short Story,
भद्रता
SECULARISM
धर्मनिर्पेक्षता
धर्मनिर्पेक्षता
इस शब्द का सार लिए,
घूम रहा हूँ, निर्वस्त्र सा लगभग
एक लंगोटी है बस,
अस्मिता की सुरक्षा को,
एक क्षीण पर्दे की तरह,
जो नैतिकता व मर्यादा की प्रतीक है,
इस पर्दे को मैंने नही हटने दिया
क्रुद्ध-भीड़ो और धर्म-वीरो से जूझकर,
विभिन्न आस्था के धर्मावलंबियो से निपट कर
क्योकि वो मेरा धर्म देखना या जानना चाह्ते थे।
उनमें से कुछ मुझे अभय-दान भी दे देते,
मगर मैंने किसी को यह अधिकार नही दिया,
अपने धर्म पर से निर्पेक्षता के पर्दे को हटने नही दिया।
मेरा निमन्त्रन है, केवल मनुष्यो को…,
आओ! इससे पहले कि मेरी धर्मनिर्पेक्ष आत्मा
यह ज़ख्मो से लहू-लुहान शरीर छोड़ दे
इस का मर्म समझ लो;
मगर मेरा धर्म जानने का प्रयत्न तुम भी न करना।
मेरे निकट यह अत्यन्त निजी वस्तु है,
उसे अन्तर्मन में ही सुरक्षित रहने दो,
उसे प्रदर्शित मत करो!
उसे नंगा मत करो!!
-मन्सूर अली हाशमी
litrature, politics, humourous
Secularism,
धर्मनिर्पेक्षता
Tuesday, August 5, 2008
स्वयं /myself
स्वयं
क्या हूँ मैं ?
क्या हूँ मैं ?
नियति की उत्पत्ति?
दो विपरीत तत्वो का सम्मिश्रण !
वासना की उपज ?
या
आल्हाद का जमा हुआ क्षण !
…… हाँ, शायद .......
कोई ऐसा जमा हुआ क्षण ही हूँ मैं,
जो भौतिक रूप में अभिव्यक्त हो गया हूँ।
मगर मेरी भौतिकता कि इस अभिव्यक्ति को, व्यक्त कौन कर रहा है ?
मन !, अदृश्य मन !!, अभूज मन !!!
बारहा, इस मन को समझाने की प्रक्रिया से गुज़र कर भी'
ख़ुद इसी को नही समझ पाया हूँ।
यह मन। …जल पर मौज, थल पर तितली और आकाश में इंद्रधनुष सा लगा …
पर मेरे हाथ, कभी न लगा !
इंद्रधनुष के रंगो की विभिन्नता से इसकी प्रकृति समझ में आ रही थी कि
यकायक वह भी ग़ायब हो गया।
रंगो का यह प्रतिबिम्ब बहुत समय तक आँखों में समाया रहा,
नेत्रों को बंद कर उसे सहेजने का प्रयास किया,
मन के 'सतरंगी' होने का आभास तो था ही,
किन्तु, वह प्रतिबिम्ब भी धुंधलाते हुए बेरंग हो गया।
रंगीन मन का बेरंग होना, विचित्र स्थिति, विचित्र अनुभूति, वैराग्य भाव सी !
सरल हो रहा लगता यह मन और जटिल हो गया।
आज, अचानक, बैठे-बैठे पारे समान चंचल मन को पकड़ लिया है,
अंगूठे और तर्जनी मध्य, मैंने मन को जकड़ लिया है।
व्यस्त अब तर्जनी है मेरी यह मेरी जानिब ही उठ रही है।
(किसी पे अब कैसे उठ सकेगी ?)
मैं अपने भीतर ही जा रहा हूँ; ध्यानावस्था में आ गया हूँ।
थमी है चंचलता मन की कुछ-कुछ,
नए रहस्यो को पा रहा हूँ।
था दूर, मन …… तो पहाड़ जैसा ! मगर अब चुटकी में आ गया है,
मेरा यह मन मुझको भा गया है।
मैं दंग हूँ ! देख रंग इसके।
हवस, तमस , और पशुत्व इसमें,
सरल, उज्जवल मनुष्यता भी।
दया भी है, क्रूरता भी इसमें,
मनस भी है, देवता भी इसमें।
है सद्गुणी तो कुकर्मी भी ये,
गो नेक फितरत, अधर्मी भी है।
बुज़ुर्ग भी बचपना भी इसमें,
है धीर गम्भीर, नटखटी भी।
मचल रहा उँगलियों में मेरी …. उड़ान भरना ये चाहता है।
समझ रहा हूँ इसे जो कुछ-कुछ , अजीब करतब दिखा रहा है।
है मन के अंदर भी एक ऊँगली, हर एक जानिब जो उठ रही है,
सभी को ये दोष दे रही है, सभी पे आक्षेप कर रही है।
दबा रहा हूँ मैं अपने मन को,
अरे ! कहाँ है ? कहाँ मेरा मन ……
न जाने कब का फिसल गया वह,
ये मेरी ऊँगली है और मेरा तन,
स्वयं को पा और खो रहा हूँ !
न पा रहा हूँ, न खो रहा हूँ !!
Note: {Pictures have been used for educational and non profit activies.
If any copyright is violated, kindly inform and we will promptly remove the picture.
मन्सूर अली हाशमी
litrature, politics, humourous
self searching,
प्याज़ के छिलके,
स्वयं की खोज
Blogging /Aatm-manthan
ब्लॉगिंग के क्षेत्र में इस पहली रचना 'आत्ममंथन' से क़दम रखा है। अपने विचारों अनुभवों को अपने पाठकों साथी ब्लॉगरो से शेअर करने के लिये। ब्लॉग का टाइटल भी "आत्ममंथन" ही रखा है। पता नहीं यह सिलसिला कब तक जारी रख पाउँगा। प्रस्तुत है पहली ग़ज़ल :-
आत्ममंथन
"उधार का ख़्याल"* है? *Borrowed thought
नगद तेरा हिसाब कर्।
भले हो बात बे-तुकी,
छपा दे तू ब्लाग पर्।
समझ न पाए गर कोई,
सवाल कर,जवाब भर्।
न तर्क कर वितर्क कर,
जो लिख दिया किताब कर्।
न मिल सके क्मेन्टस तो,
तू खुद से दस्तयाब* कर्। *उपलब्ध
तू छप के क्युं छुपा रहे,
न 'हाशमी' हिजाब* कर्। *पर्दा
-मन्सूरअली हाशमी
आत्ममंथन
"उधार का ख़्याल"* है? *Borrowed thought
नगद तेरा हिसाब कर्।
भले हो बात बे-तुकी,
छपा दे तू ब्लाग पर्।
समझ न पाए गर कोई,
सवाल कर,जवाब भर्।
न तर्क कर वितर्क कर,
जो लिख दिया किताब कर्।
न मिल सके क्मेन्टस तो,
तू खुद से दस्तयाब* कर्। *उपलब्ध
तू छप के क्युं छुपा रहे,
न 'हाशमी' हिजाब* कर्। *पर्दा
-मन्सूरअली हाशमी
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