Saturday, July 6, 2013

कैसा यह "घाव" लगा ?





कैसा यह "घाव" लगा ?

'अस्सी' के पार जाके ये अभ्यास किया है,

'नारी' के बिन भी 'काम' का प्रयास किया है,
नारी की अस्मिता की 'हिफाज़त' ही की खातिर,
'हेट्रिक' से ठीक पहले ही 'संन्यास' लिया है. 

'जोरू' तो साथ दे रही; 'ज़र'* तो चला गया !          *[वित्त मंत्रालय]
हाए ! ये अंतिम उम्र में कैसा गज़ब हुआ !!  

-- mansoor ali hashmi 

Tuesday, June 18, 2013

बरसात का क़हर !

बरसात का क़हर !

''श्रम'' , 'चौरासी साला' की उमर में !   
न था बच्चा जवाँ क्या कोई घर में ?
बिना मुंडवाए ही सर; आ गिरा है,
हमारे 'शीश' पर 'ओला', खबर है !





















-- mansoor ali hashmi 

Monday, June 3, 2013

याँ लूट मची है लेले !






याँ लूट मची है लेले !

आ, फिक्सिंग-फिक्सिंग खेले
ख़ुद मारे, ख़ुद ही झेले। 

ये दर्शक तो है गेले*                    *बेंडे 
चीयर-बाला इनपे ठेले . 

'श्रीनि' लगाए मेले,
बेचारे! 'संत'* अकेले.          *श्री संत 

बस कुर्सी छीन न मेरी,
'दामाद' भले ही लेले. 

आ, 'डाल मियाँ' तू अन्दर,
बाहर 'शिर्के', 'जगदाले'

'शशांक' मनोहर लेकिन,
ये 'जेटली' तो शर्मीले!

अब जांच कोई भी करले,
सब भाई है मौसेरे. 

'तू'* कर ले लाख ट्विट पर,          *'ललित मोदी'
हो कौनसे 'दूध-धुलेले' ?

'पावर'* क्यों काम न आया,           *'पंवार' का 
वो भी तो छाछ जलेले. 

अब ख़त्म करो भी झगडा,
मिल-जुल कर सारे खेले. 

--mansoor ali hashmi 

Thursday, March 28, 2013

केसरिया, लाल, पीला, नीला, हरा, गुलाबी

केसरिया, लाल, पीला,  नीला, हरा, गुलाबी

यह टाईटल ही तरही का मिसरा था जो इस बार पंकज सुबीर जी ने होली की मुनासिबत से दिया था . इन्होने मेरी रचना को क़बूल किया और "सुबीर संवाद सेवा'' [ http://subeerin.blogspot.in/ ] पर तरही मुशायरे में जगह दी .

'होली' पर कभी कुछ कहने का अवसर ही नही मिला. अनुभवहीनता के आधार पर जो कुछ भी लिख पाया हूँ प्रस्तुत है। 


केसरिया, लाल, पीला,  नीला, हरा, गुलाबी
जिस रंग में तुझको देखा, मन हो गया गुलाबी.
 
अब कौन रंग डालू तू ही ज़रा बतादे 
केसरिया,लाल, पीला, नीला, हरा, गुलाबी ?

होली से पहले ही है छायी हुई ख़ुमारी
हर सूं ही दिख रहा है नीला,हरा, गुलाबी.

''केसरियालाल''पीला; क्यूँ होता जा रहा है,
''सेठानी'' पर सजा जब नीला, हरा, गुलाबी.

तअबीर मिल रही है, रुखसार से हया की    
आईना हाथ में और चेहरा तेरा गुलाबी 

केसरिया, लाल, नीला; अब खो रहे चमक है 
सब्ज़ा* हुआ है पीला , 'मोदी' हुआ गुलाबी.            [*हरा]


सच बात तो यह है कि हमारे 'धर्म-निरपेक्ष' देश में होली खेलने का अवसर ही नहीं मिला !  बचपन में अपने बंद मोहल्ले में 'सादे पानी' से ही होली ज़रूर खेली.  क्योंकि दूसरी तरफ 'गंदी होली' [ गंदी इसलिए कि उसमे रंगों के अलावा 'गौबर' और 'गालियाँ' भी शामिल होती थी] खेली जाती थी. बच्चों को प्रदूषण से बचाने का ठेका तो हर समाज लेता ही है ! फिर किशोरावस्था आते-आते हम ज़्यादा अनुशासित हो चुके थे, सो सफ़ेद कपड़े पहन कर होली के दिन भी निर्भीक घूम लिया करते थे- यूं 'दाग-रहित'  रह लिये. जवानी में आर. के. स्टूडियो की होलीयाँ देख-देख कर [चित्रों में], लाड़ टपकाते रहे……….     
 
और अब बुढ़ापे में तो……। 


Mr. & Mrs. Hashmi in 2013.jpg

क्या लाल, कैसा पीला, केसरिया क्या है नीला ? 
सब कुछ हरा लगे है, सावन गया 'गुलाबी' !

''केसरियालाल'' पीला, कुरता भी है फटेला,
'नीला' हरी-भरी है, हर इक अदा गुलाबी.

फिर भी "होलीयाने" की कौशिश कुछ इस तरह की है :-

टकता है छत से बाबू, चेहरे पे है उदासी,
खाए गुलाब जामुन  नीचे गधा गुलाबी. 
पिचकारी छूटती है, किलकारी फूटती है,
ढेंचू का सुर अलापे , देखो गधा गुलाबी.

[ठीक से तो पता तो नही पर होली के दिन गधों को कुछ विशेष महत्व प्राप्त हो जाता है, इसीलिए गधे महाराज की मदद ले ली है कि होली की इस गोष्ठी में शायद प्रविष्टि मिल जाये.


पुनश्च :    नीचे से १४ वीं पंक्ति में 'लार' की जगह "लाड़" टपक गयी है ! कृपया टिस्यू पेपर से साफ़ करले ! धन्यवाद.
 
-mansoor ali hashmi 

Tuesday, March 19, 2013

ग़ज़ल


          ग़ज़ल 

http://subeerin.blogspot.com/

[सुबीर संवाद सेवा पर  : "ये क़ैदे बामशक़्क़त जो तूने की अता है"   

तरही मिसरे  पर प्रकाशित ग़ज़ल ...........पुनर्प्रस्तुति ]

हरदम कचोटती जो वो  अंतरात्मा है
काजल की कोठरी में जलता हुआ दिया है

"ये क़ैदे बामशक़्क़त जो तूने की अता है"      
कर भी दे माफ अब तो ये मेरी इल्तिजा है

दरया में है सुनामी , धरती पे ज़लज़ला है
ए गर्दिशे ज़माना दामन में तेरे क्या है?

यारब मिरे वतन को आबादों शाद रखना
दिल में भी और लब पर मेरे यही दुआ है

फैशन, हवस परस्ती, अख्लाक़े बद , ये मस्ती
जब जब भटक गए हम तब तब मिली सजा है

जम्हूरियत है फिर भी 'राजा' तलाशते है !
अपनी सहूलियत से कानून बन रहा है

क्या बात ! पाप अपने धुलते नही हमारे ,
गंगा नहा लिए है, ज़मज़म भी पी लिया है

मज़हब कहाँ सिखाता आपस में बैर रखना ?
है वो भी तो अधर्मी दिल जो दुखा रहा है

'चार लाईना' :    [ Puzzle/पज़ल !] 

"जुल्फों के पेंचो ख़म में दिल ये उलझ गया है
दीवाना मुझको करती तेरी हर एक अदा है 
पाबंदियाँ है आयद रंगे तगज्ज़ुली पर 
कैसे बयाँ करूँ मैं , तू क्या नही है क्या है।"

-- mansoor ali hashmi 

Thursday, March 7, 2013

उलट फेर


 उलट फेर 

'तारक' ने 'उल्टा चश्मा' पहने ही जब पढ़ा है,
अबकि 'बजट' ने फिर से चकमा बड़ा दिया है. 

नाख़ुश मुखालिफीं है, ख़ुश है 'बिहार' वाले,
'मन रोग* कुछ बढ़ा तो घाटा ज़रा घटा है.       *[मनरेगा]

अब राजनीति भारी अर्थो के शास्त्र पर है,
बटती है रेवड़ी वाँ ,जिस जिस से हित जुड़ा है.

नदियाँ है प्रदूषित और पर्यावरण भी दूषित ,
लेकिन 'हिमाला' अपना बन प्रहरी खड़ा है. 

जंगल को जाते थे हम पहले सुबह सवेरे,
हर 'बैत' ही से मुल्हक़ अब तो कईं 'ख़ला' है .

शू इसका बे तला है ये कोई दिल जला है,
माशूक की गली में अब सर के बल चला है. 

बेजा खुशामदों से घबरा गया है अब दिल,
ज़र से अनानियत का सौदा पड़ा गिरां है. 

अब पड़ रहा व्यक्ति भारी वतन पे, दल पे,  
लायक उसी को माना जो जंग जीतता है . 

झूठों की ताजपोशी और तख़्त भी मिला है,
'मन्सूर' तो सदा से तख्ते पे ही चढ़ा है.

-- mansoor ali hashmi 

Thursday, February 14, 2013

Velentine Day पर 13 का [2013] असर !


Well, Next Time; someday! 

गया था साथ लिए '
 वेलेन्टाईन डे' पे उसे,

'अगर-मगर' ही में दिन 'प्यार' का गुज़ार दिया,
'परन्तु-किन्तु' का मौक़ा भी न मिला मुझको,
बुखार इश्क़ का 'पोलिस' ने आ, उतार दिया।

मैं, अबकि उससे मिलूंगा 'शबे-बरात' ही को,
समाज वालों ने थोड़ा जो वक़्त उधार दिया !
http://aatm-manthan.com   

Thursday, December 13, 2012

Thursday, October 4, 2012

ग़ैरतमंद !


ग़ैरतमंद  !


मेने कहा करते हो क्या ?
उसने कहा ''हलक़तगिरी''

करदो शुरू गांधीगिरी,
"मिलता नहीं ''सर्किट कोई !"

करते हो 'मत' का 'दान' भी ?
उसने कहा "फुर्सत नहीं"

करदो शुरू तुम भी 'खनन'
"उसमे भी अब बरकत नहीं"

बेशर्म हो!, कूदो, मरो!!
"ऊंचा कोई पर्वत  नही!"

क्रिकेट में है फायदा !
"चारो तरफ CCTV !"

मंगल पे जाना चाहोगे  ?
"गद्दों की याँ पर क्या कमी !"

लड़ते इलेक्शन क्यों नहीं?
"बोगस कहाँ वोटिंग रही?"

चौराहे पर हो क्यों डटे?
"मिलती नहीं पतली गली"

सब कुछ ख़तम क्या हो गया ?
"बस शेष है ब्लागिरी*           *Blogging  ब्लागिरी  
करता हूँ वो ही रात-दिन,
देते कमेन्ट है 'हाशमी' "


-मन्सूर अली हाशमी 

Wednesday, August 1, 2012