Friday, April 29, 2011

दैनिक भास्कर में ‘आत्म मंथन’

दैनिक भास्कर में ‘आत्म मंथन’

Friday, April 22, 2011

माले मुफ्त - दिले बेरहम!


माले मुफ्त - दिले बेरहम!

संतोष जिसे है उसे थोड़ा भी 'घणा' है,
जो ज़ोर से बाजे है वही थोथा चना है.

आकाश को छूती हुई क्यूँ तेरी अना* है,    *[Ego]
तू खाक का पुतला है तू मिटटी से बना है.


'बाबा' के 'चमत्कार' हवाओं में दिखे है! 
कहते है पवन पूत भी वायु से जना है.

वायु में बवंडर है तो धरती में है कंपन,
'रामू' तो यह कहते है कि 'डरना भी मना है'.

अब 'कूक' न नगमे है न वो बादे सबा है!
जब फूल न शाख़े है; न फ़ल है न तना है.


अब 'मुफ्त' का खा कर जो हुआ कब्ज़ तो सुन लो,
जुल्लाब लगा देती जो पत्ती; वो 'सना'* है.      *[?]

--mansoor ali hashmi 

Sunday, April 10, 2011

एक अण्णा हज़ार बीमार


एक अण्णा  हज़ार बीमार   

सौ है बीमार एक अनार है आज,
सरे फेहरिस्त भ्रष्टाचार है आज.

छोड़ गुलशन निकल पड़ा आख़िर,  
गुल को खारों पे इख्तियार है आज.

मरता, करता न क्यां! दहाढ़ उठा!
हौसला कितना बेशुमार है आज.

हक़ परस्ती की बात करता है !
कोई 'मंसूर' सू -ए- दार है आज?

दरिया बिफरा ज़मीं में कम्पन है,
क्यों फ़िज़ा इतनी बेक़रार है आज.

गिरती क़द्रें है; बढ़ती महंगाई,
मुल्क में कैसा इन्तिशार है आज !

दंगा 'सट्टे' पे, जाँ 'सुपारी' एवज़ !
फिर छपा एक इश्तेहार है आज.

जिस्म बीमार; रूह अफ्सुर्दः
इक मसीहा का इंतज़ार है आज. 

'अक्लमंदों' का अब कहाँ फुक्दान*     *[कमी]
एक धूँदो मिले हज़ार है आज. 

-mansoor ali hashmi

Saturday, March 26, 2011

कुंबा है मेरा देश, मैं सरदार इसका हूँ!


कुंबा है मेरा देश, मैं सरदार इसका हूँ!

घोटाला हो गया है? मुझे कुछ पता नही !
पैमाना भर गया है? मुझे कुछ पता नही !

लाखो करोड़ कम है? कुछ और लिजीयेगा!
खाली हुआ खज़ाना ? मुझे कुछ पता नही !

कुछ 'LEAK'  हो गया है,कुछ और 'LEAK' होगा.
टपके गा कौन अबकी  ? मुझे कुछ पता नही !

अब 'चि' भी बोल उठे है, "उत्तर नहीं पसंद",
'उसका निजी ख्याल' , मुझे कुछ पता नही ! 

'बाबा' को दिख रहा है; 'काला' क्यूँ हर तरफ?
'बा' से करो सवाल, मुझे कुछ पता नही !



अब 'जेटली' की केटली में आ रहा उबाल,
"मौक़ा परस्ती" क्या है? मुझे कुछ पता नही! 

मंसूर अली  हाश्मी 

Saturday, March 5, 2011

सत्यम, शिवम्, सुन्दरम !


सत्यम, शिवम्, सुन्दरम ! 

चारो तरफ गड़बड़म ,
हर एक दिशा में भरम.

शासक है मनमोहनम ,
सत्ता बड़ी प्रियत्तम .

'मोदीललित' अद्रश्यम,
लांछित कई 'थोमसम'.  

संस्थाए 'क्वात्रोचियम',
'अफ़साने'* सब दफनम.     *[जो अंजाम तक न पहुँच सके]

'करमापयी' शरणम,   
'माल' भयो गच्छ्म.

कानून जब बेशरम, 
सोच भयी नक्सलम.

झूठम, कुरूप, रावणम,
सत्यम,शिवम् सुन्दरम.

http://mail.google.com/mail/?ui=2&ik=e17413e790&view=att&th=12e8a493acc298b1&attid=0.2&disp=inline&realattid=f_gkxp8dxo1&zw

राजेंद्र  स्वर्णकार जी के स्वर में...








-मंसूर अली हाश्मी


Monday, February 28, 2011

....कि मैं बेज़ार बैठा हूँ!



कुलदीप गुप्ताजी  की रचना ...."कविता की समाधि"    http://kuldipgupta.blogspot.com/  से प्रेरित....

[तुम वह जो टीला देख रहे हो
वह कविता की समाधि है।
कविता जो कभी वेदनाओं का मूर्त रुप हुआ करती थी
उपभोक्तावाद की संवेदनहीनता ने
उसकी हत्या कर दी है।]

.....कि मैं बेज़ार बैठा हूँ!

कविता की  समाधि का जिसे टीला कहा तुमने,
उसी टीले की  इक जानिब पे मैं भी आ के बैठा हूँ,
मुझे तो ये 'समाधी' एक 'कलमाडी' सी लगती है,
 कईं घोटाले इसमें दफ्न, मैं बेज़ार बैठा हूँ.

कई 'आदर्शी टॉवर' तो, 'बड़े स्पेक्ट्रम' इसमें,
छिपे बैठे कई 'अफज़ल-असीमानंद' है इसमें,
कई 'राजा' की गद्दी है, कई 'बाबा' के आसन है,
किसी 'lady' का मोबाईल किसी मुन्नी  का  गायन है.

उछलता sex है और sense मे आई गिरावट है,
न तुम संवेदना धूँदो, बनावट ही बनावट है,
इरादों मे बुलंदी है न जज़बो मे हरारत है,     
न सच्चा है कोई मजनूं  न लैला मे शराफत है.

विवाह भी एक प्रोफेशन ही बनता जा रहा है अब,
लगा क्या है? मिला कितना? ये सोचा जा रहा है अब,
'उपजती' नारी है या नर ये जांचा जा रहा है अब,
पसंदीदा नहीं गर शै  तो बेचा जा रहा है अब.

कवि हूँ  मैं न शायर हूँ, मुफ़त छपता ब्लॉगर हूँ,
न रचना से मैरी संगीतो- सूरत ही उभरती है,
जो गिर्दो -पेश मे दिखता वही लिख मारता हूँ मैं,
संवेदनहीन टीला बनके मैं ख़ुद पे ही बैठा हूँ.
   
mansoorali hashmi

Thursday, February 24, 2011

पुन---- र्जनम दिवस [22 फरवरी]

पुन----  र्जनम  दिवस   [22 फरवरी] 


हो गए तिरसठ के अब ; छप्पनिया अपनी मेम है,
जंगली  बिल्ली थी कभी; अब तो बिचारी Tame है.

सर सफाचट; दुधिया दाढ़ी में बरकत हो रही,
स्याह ज़ुल्फे उसकी अबतक; जस की तस है, same है.

यूं तो अब भी साथ चलते है तो लगते है ग़ज़ब,
'वीरू'* सा मैं भी दिखू हूँ; वो जो लगती 'हेम' है.     *[धर्मेन्द्र] 

याद एक-दो मुआशिके* ही रह गए है अब तो बस,      *[प्रेम प्रसंग]        
सैंकड़ो G.B. की लेकिन अबतक उसकी RAM है.

सर भी गंजा हो गया  मेकअप पे उनके खर्च से ,
बाकी अब तो रह गया L.I.C.  Claim  है.

सोचता हूँ कुछ कमाई करलू 'गूगल ऐड' से,
चंद चटखो से मिले कुछ  Pence  तो क्या shame है.

P.C.  अब माशूक है; टीचर भी, कारोबार भी,
अब गुरु, अहबाब, महबूबा तो लगते Damn है.

रहता चांदनी चौक में; रतलाम का वासी हूँ मैं,
इन दिनों करता ब्लोगिंग, हाश्मी surname है.

-मंसूर अली  हाश्मी 

Wednesday, February 9, 2011

वो....ग्ग्या....


वो....ग्ग्या....   

फिर आज इक दिन खो गया,
9 - 2 - 11 हो गया,
लौटा नही है, जो गया.

लो,  नौ-दो-ग्यारह* हो गया,       
पेचीदा कानूनों में फंस,
निर्णय ही देखो खो गया!    

झंडे का वंदन हो गया,
आज़ाद पाके ख़ुद को फिर, 
जागा ज़रा, फिर सो गया.


प्रतिष्ठा अपनी धो गया !
हंगामा मत बरपा करो,
जो हो गया सो हो गया.

'पिरामिडो' के देश का,
वो तो 'इकत्तीस मारखां'     [Ruling since 31 years]
देखो तो फिर भी रो गया.

--mansoorali hashmi

Tuesday, February 8, 2011

बड़ा 'कल' से तो है 'पुर्ज़ा'


बड़ा 'कल' से तो है 'पुर्ज़ा'  

यथा राजा; तथा प्रजा,
यहाँ कर्ज़ा, वहां कर्ज़ा.


दिवाल्या हो के तू घर जा,
चुकाता कौन याँ कर्ज़ा.

प्रकृति  ने नियम बदले !
वही बरसा, जो है गरजा.

नई रस्मो के सौदे है,
नगद 'छड', कार्ड* ही धर जा.   [*Credit]

अभी तक 'दम' है 'गांधी' में,
जो जीना है तो यूं मरजा.

जो अंतरात्मा मुर्दा,
डुबो दे जिस्म क्या हर्जा?

कुंवा है इक तरफ खाई,
जहां चाहे वहां मुड़ जा.

न दाया देख न बायाँ 
जहां सत्ता, वही मुड़ जा.

है 'BIG SPECTRUM' दुनिया,
जो जी में आये वो कर जा.

भले जन्नत हो क़दमो में,
है दूजा ही तेरा* दर्जा.      *[औरत]

=====================

"आधिकारिक सूचना"

करे गर बात हक़* की तो,       [ *अधिकार/ R.T.I. ]
तू पीछे उसके ही पड़ जा,
खुलासा होने से पहले,
'अदलिये'* से भी  तू जुड़ जा.     [*Judiciary ]

mansoorali hashmi

Friday, January 28, 2011

'वो-ही-वो'


[अली सय्यद साहब के ब्लॉग  "उम्मतें'' पर ..

तू ही तू : तेरा ज़लवा दोनों जहां में है तेरा नूर कौनोमकां में है.....


में स्त्री गौरव  गाथा का ज़िक्र  पढ़ कर मुझे भी अपनी  'वो-ही-वो'  याद आगई और ये रच गया है....  ]  

'वो-ही-वो'

[राज़ की बातें] 

रात को वो मैरे बिस्तर पर सोती है,
दिन में; मैं उसके बिस्तर पर सोता हूँ,
दोनों बिस्तर अलग ठिकानों पर लगते,
खर्राटे फिर भी डर-डर के भरता हूँ .
वो पढ़ती * रहती; मैं लिखता रहता हूँ!     *[धार्मिक किताबे]
वो छुपती है और मैं 'छपता' रहता हूँ. 

थक गए घुटने तो अब  कुर्सी  पाई ,
वर्ना अब तक चरणों में रहती आयी !
वो तो मैं ही कुछ ऊंचा अब सुनता हूँ,
चिल्लाने की उनको आदत कब भायी !
वो रोती तो  मैं हंस देता था पहले,
अब वो हंसती और मैं रोता रहता हूँ.



नही हुए बूढ़े, लेकिन अब पके हुए है,
55-62  सीढ़ी चढ़ कर थके हुए है ,
पहले आँखों से बाते कर लेते थे,
अबतो चश्मे दोनों जानिब चढ़े हुए है.
नज़र दूर की अब मैरी कमज़ोर हुई तो,
बस 'वो-ही-वो' हर सू अब तो दिखा किये है.

-मंसूर अली  हाश्मी