Friday, January 30, 2009

चन्द्र ग्रहण /Eclipsed Moon

कौन फिजा?, कैसा चाँद? #

चाँद पहले फ़िज़ा में गुम था कहीं
हर तरफ़ चाँदनी थी छिटकी हुई।
अब फ़िज़ा से ही गुम हुआ है चाँद
और फ़िज़ा रह गयी बिलखती हुई।  




#चंडीगढ़ से नक्षत्र-दर्शन

Monday, January 5, 2009

ग़ज़ल-३

ग़ज़ल-3

चाँद शरमाए अगर देखे तेरी तनवीर* को,
आईना क्या मुंह बताएगा तेरी तसवीर को।



पे-ब-पे* अज़्मो-अमल नाकाम होते ही रहे,
मेने इस पर भी न छोड़ा दामने तदबीर# को।


रंज में, ग़म में, अलम में*  मुझको हँसता देखकर,
बारहा# रोना पड़ा है गर्दिशे तक्दीर को।



वो ही देते है मेरे शेअरो की कीमत हाशमी,
जानते है जो मेरी तेहरीर को तकरीर को।


*चमक, रौशनी
*लगातार
#कौशिश
*दुखो की कष्टप्रद स्थिति
#अक्सर

म् हाशमी।

Determination/संकल्प

संकल्प [अज़्म]

गर अज़्म अमल* में ढल जाए,
हर मौज किनारा बन जाए।


हिम्मत न अगर इन्साँ हारे,
हर मुशकिल आसाँ हो जाए।


गर आदमी रौशन दिल करले,
दुनिया में उजाला हो जाए।


इन्सान जो दिल को दिल कर ले,
हर दिल से नफ़रत मिट जाए।


जो दिल ग़म से घबराता है;
वह जीते-जी मर जाता है,
जो काम न आए दुनिया के;
वह हिर्सो-हवस# का बन्दा है।


*कार्यान्वयण
# लालच व स्वार्थ


म.हाशमी।

Sunday, January 4, 2009

Ghazal-2

ग़ज़ल-2

रात रोती रही,सुबह गाती रही,
ज़िन्दगी मुख्तलिफ़ रंग पाती रही।


शब की तारीकियों में मेरें हाल पर,
आरज़ू की किरण मुस्कुराती रही।


सारी दुनिया को मैने भुलाया मगर,
इक तेरी याद थी जो कि आती रही।


मैं खिज़ा में घिरा देखता ही रहा,
और फ़सले बहार आ के जाती रही।

हाशमी मुश्किलों से जो घबरा गया,
हर खुशी उससे दामन बचाती रही।


म्। हाशमी

Wednesday, December 31, 2008

ग़ज़ल-1

ग़ज़ल-1

जुस्तजूं* में उनकी हम जब कभी निकलते है,
साथ-साथ मन्ज़िल और रास्ते भी चल्ते है।


दौर में तरक्की के दिल लगाके अब मजनूँ,
रोज़ एक नई लैला आजकल बदलते है।


ता-हयात मन्ज़िल पर वो पहुंच नही सकते,
मुश्किलों के डर से जो रास्ते बदलते है।


ज़िन्दगी की राहों में हाशमी वह क्यों भटके,
जो जवाँ इरादों को साथ ले के चलते है।

*तलाश
-मन्सूर अली हाशमी।

आशावाद /optimism

नई मंजिल

कुछ खुश्गवार यादों के साये तले चले,
कुछ खुश्गवार वादो के साये तले चले,
कुछ यूँ चले कि चलना मुकद्दर समझ लिया,
आखिर जहाने फ़ानी से से चलते चले गये।


रुक यूँ गये कि दश्त* को गुलशन समझ लिया,
और सामने पहाड़ को चिल्मन# समझ लिया,
सोचा कि अबतो देख के नज़्ज़ारा जाएंगे,
ठहरे हुए को दुनिया ने मदफ़न समझ लिया।


फ़िर चल पड़े तलाश में मन्ज़िल को इक नयी,
लेकर चले उमंग नयी, आरज़ू नयी,
गुज़री हुई बिसारके आगे को चल दिये,
नव-वर्ष आ गया है, सुबह भी नयी-नयी।
*जंगल
#पर्दा
ईश्वरत्व का
कब्र
[नोट:- अन्तिम चार पंक्तियां- श्री द्विवेदीजी और सुश्री वर्षाजी की फ़र्माईश पर जोड़ दी है]
सभी ब्लागर साथियों को नव-वर्ष [2009] की बधाई, शुभ-कामनाओ सहित, जय-हिन्द्।


मन्सूर अली हाशमी।  

Foul Player

अनाड़ी-खिलाड़ी

जंग अब भी जारी है,
जूतम-पैजारी है।


कारगिल से बच निकले,
किस्मत की यारी है।

खेल कर चुके वह तो,
अब हमारी बारी है।

एल,ई,टी ; जे-हा-दी,
किस-किस से यारी है?


मज़हब न ईमाँ है,
केवल संसारी है।


सिक्के सब खोटे है,
कैसे ज़रदारी है?


पूरब तो खो बैठे,
पश्चिम की बारी है!


-मन्सूर अली हशमी

आकलन

आकलन
दौड़-भाग करके हम पहुँच तो गये लेकिन,
रास्ते में गठरी भी छोड़नी पड़ी हमको।

साथ थे बहुत सारे, आस का समन्दर था,
छोड़ बैठे जाने कब, जाने किस घड़ी हमको।

अब है रेत का दरिया, तशनगी का आलम है,
मृग-तृष्णा थी वो , सूझ न पड़ी हमको।

एक सदा सी आती है, जो हमें बुलाती है,
मौत पास में देखी, देखती खड़ी हमको।

अलविदा कहे अबतो, फ़िर कहाँ मिलेंगे अब,
अंत तो भला होगा,चैन है बड़ी हमको।

-मन्सूर अली हाशमी

Tuesday, December 30, 2008

Cursing

Tuesday, 30 December, 2008
मिर्ज़ा ग़ालिब तो "गालिया खाके बे मज़ा न हुआ" वाली तबियत के मालिक थे, अब जो घुघूती जी ने गालियों वाला सोपान खोला है, रोचक बनता जा रहा है. गालियों के उदगम के नए-नए क्षेत्र उजागर हो रहे है. परंपरागत के अतिरिक्त सामंतिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, लिंग-भेदी वगेरह -वगेरह. मैंने भी गालियों के सन्दर्भ में अपने ब्लॉग ''यथार्थवादिता'' में धार्मिक और सामाजिक असहिष्णुता को लेकर चल रहे 'गाली-युद्ध' का ज़िक्र किया था, जो इस तरह था:

[
आप-साहब, श्रीमान, जनाब, महाशय और शिष्टाचारी रूपी सारे वह शब्द हम त्याग दे जिसे बोलते समय हमारा आशय सद नही होता। सदाशयताका विलोप तो जाने कब से हो गया। क्यों न हम यथार्थवादी बन सचमुच जो शब्द हमारी सोच में है, तीखे, भद्दे, गन्दे, गालियों से युक्त, विषयुक्त परंतु कितने आनंद दायक जब हमें उसे प्रयोग करने का कभी सद अवसर प्राप्त होता है।क्यों न हम यह विष वमण कर दे, और इसे तर्क संगत साबित करने के लिये, इतिहास के गर्त मे सोये दुराचारो, अनाचारो, अत्याचारो के गढ़े मुर्दे बेकफ़न कर दे! अच्छा ही होगा, हमें बद हज़मी से भी ज़्यादा कुछ होगया है, हमारा सहनशील पाचक मेदा अलसर ग्रस्त हो गया है! और मुश्किल यह है कि हमें लगातार तीखे मिर्च-मसाले खिलाये जा रहे है-- धर्म के, दीन के, स्वर्निम इतिहास की अस्मिता के नाम पर,जबकि नैतिक पतन के इस दौर में ये शब्द अर्थ-हीन होते जा रहे है। मज़हब की अफ़ीम से , नींद आ भी जाये परन्तु 'अल्सर' तो दुरस्त नही होगा। इस अल्सर को कुरैद कर काट कर उसमें से अपशब्दो को बह लेने दो। इसमें मरने का तो डर है, परन्तु अभी जो स्थिति है उससे बेह्तर है। मैने तो सभ्य बनने की कौशिश में शिष्टाचार का जो आवरण औढ़ रखा है उसमें गालियां भी दुआए बन कर प्रवेश होती है। परन्तु अप शब्दों का मैरे पास भी टोटा नही, छोटपन दिखाने के लिये मेरा कद भी आप से कम छोटा नही। शब्दों के मेरे पास वह बाण है कि धराशायी कर दूंगा तमाम कपोल-कल्पित मान्यताओ को, वीरान इबादत गाहो को,परन्तु नमूने की कुछ ही बानगी परोस कर ही मैं यह दान-पात्र आपके बीच छोड़ना चाह्ता हूँ. इस अवसर को महा अवसर मान कर बल्कि महाभारत जान कर कूद पड़ो]
मेरा यह मानना है की गालियों के उदगम में मूलत: गुस्सा, असहिष्णुता, असंतुष्टि और असहजता ही व्याप्त होती है जिस पर मनुष्य का बस कम होता है. ऐसे में वह गाली वाला अस्त्र सहजता से प्रयुक्त हो जाता है. अगर यह सफल रहा तो सामने वाले को दबा देता है या प्रत्युत्तर में तगड़ा वार् झेलना पड़ता है. अक्सर गाली देने वाला गाली झेलने में कम ही सक्षम होते है.
परम्परानुसार, लिंग-भेद के चलते स्त्री-लिंग ही गालियों की ज़द में अधिकतर आता है, जो हमारे सामाजिक उत्थान के स्तर को दर्शाता है. इसी स्तर की स्थिति ने हमें परेशान किया है की हम ''गाली-पुराण'' पर गंभीरता से चर्चा करनेको उद्वेलित हुए है एक कमेन्ट में 'मीठी'' गाली का भी ज़िक्र आया , अच्छा लगा. यह ''मिठास'' भी मधु-मेह का precaution लेते हुए प्रयोग की जाए तो बेहतर है. यह अस्त्र कम संहारक होता है. एक दान-पात्र ऐसी मीठी गालियों के लिए मैं अपने ब्लोगर साथियो के बीच छोड़ना चाहता हूँ, इसे भर कर नवाजिश फरमाए, इसी बहाने यह बहस और कुछ दूर तक चलने दे.सभी दिखाएँ
-म.हाश्मी .

Monday, December 29, 2008

Technological Nuisance

अक्कल-युग 

डांट [DOT] कर जो काम [COM]करवाओ तो होता आजकल,
मेल [MAIL] से ही तो मिलन लोगो का होता आजकल।


पहले मन से और विचारो से न था जिसका गुज़र,
ढेर सारे "मैल" अबतो मिल रहे है आजकल .


कोई याहू.न की तरफ़ लपका तो कोई ''हॉट'' पर,
गू-गले [goo-gle] से भी उतरता हमने देखा आजकल.


झाड़-फूँको की जगह अब आ गया है ''ORKUT'',
फूंक के बिन आदमी जालो में फसता आजकल.


याहूँ का पहले कभी 'जगंली' मे होता था शुमार,
अब तो हर टेबल के उपर [DESKTOP]मौजूद होता आजकल्।


पहले बालिग़ [व्यस्क] होने को दरकार थे अठारह साल,
नन्हा-मुन्ना भी यहाँ होता ब्लाँगर आजकल्।


मन्सूर अली हाशमी