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Thursday, February 24, 2011

पुन---- र्जनम दिवस [22 फरवरी]

पुन----  र्जनम  दिवस   [22 फरवरी] 


हो गए तिरसठ के अब ; छप्पनिया अपनी मेम है,
जंगली  बिल्ली थी कभी; अब तो बिचारी Tame है.

सर सफाचट; दुधिया दाढ़ी में बरकत हो रही,
स्याह ज़ुल्फे उसकी अबतक; जस की तस है, same है.

यूं तो अब भी साथ चलते है तो लगते है ग़ज़ब,
'वीरू'* सा मैं भी दिखू हूँ; वो जो लगती 'हेम' है.     *[धर्मेन्द्र] 

याद एक-दो मुआशिके* ही रह गए है अब तो बस,      *[प्रेम प्रसंग]        
सैंकड़ो G.B. की लेकिन अबतक उसकी RAM है.

सर भी गंजा हो गया  मेकअप पे उनके खर्च से ,
बाकी अब तो रह गया L.I.C.  Claim  है.

सोचता हूँ कुछ कमाई करलू 'गूगल ऐड' से,
चंद चटखो से मिले कुछ  Pence  तो क्या shame है.

P.C.  अब माशूक है; टीचर भी, कारोबार भी,
अब गुरु, अहबाब, महबूबा तो लगते Damn है.

रहता चांदनी चौक में; रतलाम का वासी हूँ मैं,
इन दिनों करता ब्लोगिंग, हाश्मी surname है.

-मंसूर अली  हाश्मी 

Thursday, October 28, 2010

एक रूबाई


 
जिस तरह माह-ओ-साल बीत गए,
यह ज़माना भी बीत जाएगा,
'हाशमी' वक़्त का ख्याल न कर,
एक दिन तू भी मुस्कुराएगा.


-मंसूर अली हाशमी
http://aatm-manthan.com

Friday, August 13, 2010

ऐसे तो न थे हम!


                              "छिनरा कोई, छिनाल, छलावा लगे कोई "

'छिनाल' पर बहस रुकने क नाम नही ले रही, ख़ूब 'छीछालेदार' हो रही है, तथाकथित बुद्धिजीवी साहित्यकारों की. 'छत्तीस' के आंकड़े वालो को भिड़ने का ख़ूब अच्छा बहाना मिल गया है. 'छाती' ठोंक कुछ 'छुट-भय्ये' भी मैदान में कूद पड़े है. ख़ूब 'छकिया' रहे है एक-दूजे को. इतने 'छक्के' तो T-20 में भी नहीं लगे थे. 'छलनी' जितने 'छिद्र' निकल आये है हमारी साहित्यिक संस्कृति में, जिसकी गरिमा पर गहन चिंतन करते हम अघाते नही. एक सभ्य ! व्यक्ति के 'छिनाल' शब्द प्रयुक्त कर लेने पर सभी को जैसे 'गाली-गलौच'  की 'छूट' सी मिल गयी है.
'छद्मरूप' धारी  टिप्पणी कर्ता भी ख़ूब मज़ा ले रहे है, इस भिड़ंत का. अजीब मन: स्थिती हो रही है इन दिनों, हिंदी साहित्य पढ़ने, मनन करने पर भी शर्म सी महसूस हो रही है. क्या कोई गंभीर साहित्यकार या साहित्य  के शुभ-चिन्तक आगे आकर इस 'छिनाली' संस्कृति से हिंदी साहित्य को मुक्त करवाएगा ? 

-मंसूर अली हाश्मी 
  

Sunday, November 8, 2009

चटका/Comments!

चटके का झटका 

वाणी मेरी पढ़के उसने आज एक चटका दिया,
अर्थ उनके शब्दों का में ढूंढ़ता ही रह गया,
वो लिखे कि- इतने सुन्दर,कितने सुन्दर आप है,
इस बुढापे में ये कितनी ज़ोर का झटका दिया.


अब ब्लागों पर लगी तस्वीर का मैं  क्या करू,
छप गई; हटती नहीं मुझसे दुबारा क्या करू,
Mail पर भी तो वो आने लगे है आजकल,
थोड़ा-थोड़ा मुझको भी भाने लगे है क्या करू?


नेट पर छपना भी अब तो छोड़ देना चाहिए,
रिश्ता-ए-कागज़ कलम फिर जोड़ देना चाहिए,
नेट के रिश्तो से डर लगने लगा है आजकल,
टिप-टिपाकर pass है ;अब  'मोड़' देना चाहिए. 


-मंसूर अली हाशमी 

Friday, March 13, 2009

आत्म घात्

आत्म घात् !


ख़ामोश दिवाली देख चुके, अब सूखी होली खेलेंगे,
हुक्मराँ हमारे जो चाहे, वैसी ही बोली बोलेंगे।
वारिस हम थे संस्कारो के,विरसे में मिले त्यौहारो के,
वन काट चुके, जल रेल चुके, किसके ऊपर क्या ठेलेंगे ।

-मंसूर अली हाशमी 












Monday, February 2, 2009

ज़िन्दगी ?/What is Life?

--------------आदमी इस लिये नही मरता------------------
ज़िन्दगी ख्वाहिशो का मरकज़* है
आरज़ूओं का एक मख़्ज़न* है
ख़ुशनुमा फूल, बहता झरणा है
काम ही इसका आगे बढ़ना है।

ज़िन्दगी रौशनी की महफ़िल है
जिस से ये काएनात झिल-मिल है
है हवा पर सवार यह तो कभी
मौजे दरया,सुकूने साहिल है।

ज़िन्दगी क्या है?, माँ का आँचल है
साया जिससे मिले वह बादल है
जज़्ब* कर सब बुराई अपने में
शुद्ध पानी जो दे वह छागल है।

रौ के हँस पड़ना इसकी फ़ितरत है
हँस के आँखे भिगोना आदत है
दूर से ही सुनाई देती है
सुमधुर ज़िन्दगी की आहट है।

प्यार, रिश्ते, वफ़ा, जफ़ाए भी
नाज़, नख़रे, सितम, अदाएं भी
तपता सहरा घनी घटाएं भी
ज़िन्दगी है परी-कथाएं भी।

आस्मानो से इसका रिश्ता है
सज्दा इसको करे फ़रिश्ता है
इसकी रुदाद* तो नविश्ता* है
ज़िन्दगी नग़्म-ए-ख़ज़िश्ता* है।

मठ के निकली है यह समुन्दर से
दूसरा नाम इसका अमृत है,
मौत से हार कैसे मानेगी
यह तो एक मोअजेज़-ए-कुदरत है*

आदमी ज़िन्दगी का हामिल है
ज़िन्दगी को ख़ुशी यह हासिल है
वो जो दुश्मन है इसका, ग़ाफ़िल है
ज़िन्दगी आदमी में कामिल है।

ज़िन्दगी इक अजर-अमर शै* है
जिस्मे आदम तो इक लबादा* है
यह बदल भी गया तो क्या ग़म है
आदमी ज़िन्दा है-पाईन्दा* है।

*मरकज़=सेन्टर, मख़ज़न=स्टोर, जज़्ब=सोख लेना,
रुदाद=दास्तान, नविश्ता=लिखी हुई, ख़ज़िश्ता=मुबारक
मोअजेज़-ए-कुदरत=ईश्वरीय चमत्कार,शै=वस्तु
लबादा=पौशाक, पाईन्दा=सदा कायम रहने वाला
 
[संजय भारद्वाज जी की रचना 'ये आदमी मरता क्यों नहीं है" एवं
नीरज जी के ब्लोग से प्रभावित होकर यह रचना रचित हुई है।]
-मंसूर अली हाशमी 

Monday, January 5, 2009

Determination/संकल्प

संकल्प [अज़्म]

गर अज़्म अमल* में ढल जाए,
हर मौज किनारा बन जाए।


हिम्मत न अगर इन्साँ हारे,
हर मुशकिल आसाँ हो जाए।


गर आदमी रौशन दिल करले,
दुनिया में उजाला हो जाए।


इन्सान जो दिल को दिल कर ले,
हर दिल से नफ़रत मिट जाए।


जो दिल ग़म से घबराता है;
वह जीते-जी मर जाता है,
जो काम न आए दुनिया के;
वह हिर्सो-हवस# का बन्दा है।


*कार्यान्वयण
# लालच व स्वार्थ


म.हाशमी।

Wednesday, December 31, 2008

आशावाद /optimism

नई मंजिल

कुछ खुश्गवार यादों के साये तले चले,
कुछ खुश्गवार वादो के साये तले चले,
कुछ यूँ चले कि चलना मुकद्दर समझ लिया,
आखिर जहाने फ़ानी से से चलते चले गये।


रुक यूँ गये कि दश्त* को गुलशन समझ लिया,
और सामने पहाड़ को चिल्मन# समझ लिया,
सोचा कि अबतो देख के नज़्ज़ारा जाएंगे,
ठहरे हुए को दुनिया ने मदफ़न समझ लिया।


फ़िर चल पड़े तलाश में मन्ज़िल को इक नयी,
लेकर चले उमंग नयी, आरज़ू नयी,
गुज़री हुई बिसारके आगे को चल दिये,
नव-वर्ष आ गया है, सुबह भी नयी-नयी।
*जंगल
#पर्दा
ईश्वरत्व का
कब्र
[नोट:- अन्तिम चार पंक्तियां- श्री द्विवेदीजी और सुश्री वर्षाजी की फ़र्माईश पर जोड़ दी है]
सभी ब्लागर साथियों को नव-वर्ष [2009] की बधाई, शुभ-कामनाओ सहित, जय-हिन्द्।


मन्सूर अली हाशमी।  

Thursday, October 23, 2008

To Be

होना.....

'होना'', हमारे लिये साधारण बात हो गयी है, इसी लिये हमें 'अपने' ही होने का अह्सास नही हो पाता।
सपने में ही कभी-कभी खुद के होने के अह्सास को चिकोटी काट कर कन्फ़र्म ज़रूर किया है, मगर आँख खुलते ही हम 'हम' कहाँ रह्ते है। होने को हम बहुत कुछ है, बेटा-बेटी, भाई-बहन, माँ-बाप, पति-पत्नी
दोस्त-दुशमन, आस्तिक-नास्तिक, गुरू-शिष्य, नेता-अनुयायी, इस या उस देश के वासी। और हाँ-  मनुष्य होने का आभास भी हमें कभी-कभी होता है- व्यथा की घड़ी में!  पशुत्व को तो हम अपने आवरण  तक ही सीमित रखते है कि पशुत्व में प्रकट होना हमे अपनी गरिमा के विपरित लगता है।
और भी बहुत कुछ 'होना' हमे अच्छा लगता है - जो हम नही है, मगर इस "होने" की भीड़ में;  सचमुच हम क्या है?…और क्या है ये सचमुच?……ये ''सचमुच होना" भी बड़ी साधारण बात है…'हम'
तो बड़ी असाधारण चीज़ है!

-मन्सूर अली हाश्मी

Tuesday, August 5, 2008

स्वयं /myself

                    स्वयं






क्या हूँ मैं ?

नियति की उत्पत्ति?
दो विपरीत तत्वो का सम्मिश्रण !
वासना की उपज ?
  या 
आल्हाद का जमा हुआ क्षण !
…… हाँ, शायद ....... 
कोई ऐसा जमा हुआ क्षण ही हूँ मैं,
जो भौतिक रूप में अभिव्यक्त हो गया हूँ। 

मगर मेरी भौतिकता कि इस अभिव्यक्ति को, व्यक्त कौन कर रहा है ?
मन !,    अदृश्य मन !!,  अभूज मन !!!

बारहा, इस मन को  समझाने की प्रक्रिया से गुज़र कर भी'
ख़ुद इसी को नही समझ पाया हूँ। 

यह मन। …जल पर मौज, थल पर तितली और आकाश में इंद्रधनुष सा लगा …
पर मेरे हाथ, कभी न लगा !
इंद्रधनुष के रंगो की विभिन्नता से इसकी प्रकृति समझ में आ रही थी कि 
यकायक वह भी ग़ायब  हो गया। 
रंगो का यह प्रतिबिम्ब बहुत समय तक आँखों में समाया रहा,
नेत्रों को बंद कर उसे सहेजने का प्रयास किया,
मन के 'सतरंगी' होने का आभास तो था ही,
किन्तु, वह प्रतिबिम्ब भी धुंधलाते हुए बेरंग हो गया। 
रंगीन मन का बेरंग होना, विचित्र स्थिति, विचित्र अनुभूति, वैराग्य भाव सी !
सरल हो रहा लगता यह मन और जटिल हो गया। 

आज, अचानक, बैठे-बैठे पारे समान चंचल मन को पकड़ लिया है,
अंगूठे और तर्जनी मध्य, मैंने मन को जकड़ लिया है। 
व्यस्त अब तर्जनी है मेरी यह मेरी जानिब ही उठ रही है। 
(किसी पे अब कैसे उठ सकेगी ?)
मैं अपने भीतर ही जा रहा हूँ; ध्यानावस्था में आ गया हूँ। 
थमी है चंचलता मन की कुछ-कुछ,
नए रहस्यो को पा रहा हूँ। 
था दूर, मन …… तो पहाड़ जैसा ! मगर अब चुटकी में आ गया है,
मेरा यह मन मुझको भा गया है। 

मैं दंग हूँ ! देख रंग इसके। 
हवस, तमस , और पशुत्व इसमें,
सरल, उज्जवल मनुष्यता भी। 
दया भी है, क्रूरता भी इसमें,
मनस भी है, देवता भी इसमें। 
है सद्गुणी तो कुकर्मी भी ये,
गो नेक फितरत, अधर्मी भी है। 
बुज़ुर्ग भी बचपना भी इसमें,
है धीर गम्भीर, नटखटी भी। 
मचल रहा उँगलियों में मेरी …. उड़ान भरना ये चाहता है। 
समझ रहा हूँ इसे जो कुछ-कुछ , अजीब करतब दिखा रहा है। 
है मन के अंदर भी एक ऊँगली, हर एक जानिब जो उठ रही है,
सभी को ये दोष दे रही है, सभी पे आक्षेप कर रही है। 
दबा रहा हूँ मैं अपने मन को,
अरे ! कहाँ है ? कहाँ मेरा मन …… 
न जाने कब का फिसल गया वह, 
ये मेरी ऊँगली है और मेरा तन,
स्वयं को पा और खो रहा हूँ !
न पा रहा हूँ, न खो रहा हूँ !!     

Note: {Pictures have been used for educational and non profit activies.
If any copyright is violated, kindly inform and we will promptly remove the picture.
        मन्सूर अली हाशमी