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Saturday, September 11, 2010

आपको क्या कष्ट है?

आपको क्या कष्ट है?




One in three Indians 'utterly corrupt': Former CVC

                                                  -Times Of India [10-09-10]
हर "तीन" में से "एक" 'सरासर' भ्रष्ट है,
'दो' की मुझे तलाश है, जो कम भ्रष्ट है!

मिल जाए काश 'एक' जो wORTHY<>Trust है.
अब मैरी स्थिति तो सभी पे स्पष्ट है.

होते हो क्यूँ उदास नहीं कोई दुष्ट है,
इतनी सी बात है कि ज़रा पथ भ्रष्ट है.

है ये नया ज़माना नया इसका शिष्ट है,
धोका उसी को दो उसे जो मित्र इष्ट है.

जिसकी बहुमति है उसे कष्ट-कष्ट है,
करते है अल्प मत को सभी तुष्ट-तुष्ट है.

अब खेल राजनीति है, इसका उलट भी सच,
जो इसमें आ गया है वही हष्ट-पुष्ट है.

दल-गत की स्थिति में अलग से लगे मगर,  [MPees]
INCOME की बात आयी, सभी एक-मुश्त है.

मंथन से जिसने पा लिया अमृत ए हाशमी,
दुनिया तो उसने पाली उसीकी बहिश्त* है.  [*जन्नत]


ब्लॉग जगत के सभी साथियों  को ईद की शुभ कामनाएं.
mansoorali hashmi

Thursday, July 30, 2009

ये किस से यारी हो गयी !

बदमूल्य
ये किस से यारी हो गयी !


चाँद से चंदर बने मोहन के प्यारे हो गए,
जो उन्हें प्यारी थी वो [शादी] अल्लाह को प्यारी हो गयी.
अब मशीने फैसला करती है सच और झूठ का,
अब ज़मीरों पर हवस; इमाँ से भारी हो गयी
.


सामना सच का करे ! बस में नहीं हर एक के,
झूठ से पैसे बचे, चैनल जुवारी हो गयी.

किस ''करीने''* से जुदा एक चाकलेटी हो गया
नाम जिसपे गुड़** गया उससे ही यारी हो गयी.

नौ - गजी होती कभी थी इस्मते खातून* अब,
घटते-घटते अब तो ये, छ: फुटिया साड़ी हो गयी.

*करीना= सलीका , गुड़ना= tatoo

Friday, January 30, 2009

चन्द्र ग्रहण /Eclipsed Moon

कौन फिजा?, कैसा चाँद? #

चाँद पहले फ़िज़ा में गुम था कहीं
हर तरफ़ चाँदनी थी छिटकी हुई।
अब फ़िज़ा से ही गुम हुआ है चाँद
और फ़िज़ा रह गयी बिलखती हुई।  




#चंडीगढ़ से नक्षत्र-दर्शन

Monday, December 15, 2008

Friday, September 19, 2008

Weight

भार
IT से जुड़ कर हम में से बहुत से अपनी दुकान बंद कर बैठे है [दो कान भी microphone घुस जाने की वजह से ]। व्यापारी से हम व्यवसायी [professional] हो गए है। माल खरीद-बिक्री में भी हाथो का प्रयोग कम हो गया है। " सिर्फ़ कुछ उँगलियों की खडखडाहट " , "बगैर in हुए माल out".


खरीदना -बेचना कितना आसन हो गया है, इस प्रक्रिया में शायद हमें भी किसी ने खरीद लिया है ! हम भी बिक कर कितना भर-रहित महसूस कर रहे है। ऊपर उठने के लिए यह आवश्यक भी है। और फ़िर सभी चीजे कम भार की हो रही है, computer, laptop, mobile यहाँ तक की car भी। नई technology का भार से कोई बैर ज़रूर है, तभी तो भार बताने वाले बांटो का तो अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है[ eloctronic scale से]।


अब छोटी चीजे बड़े status का पर्याय बनती जा रही है तो मैरे छोट्पन पर भी आप एतराज़ न करे।मै
कद घटाकर [तदानुसार भार घटाकर] उंचाइयां पाने की कोशिश कर रहा हू तो आप मेरे पाँव मत खीचिये ।


मगर प्रकर्ति के नियम के तहत यह भार कही न कही तो स्थानांतरित तो अवश्य ही हो रहा होगा ? आज मुझे अपने "पेपर्स" आगे [!] बढ़ने के लिए प्रयुक्त भार से अंदाज़ हुआ की कोई क्षेत्र तो बचा है जहाँ 'भार' निरंतर बढ़ रहा है। 'Balance' बनाने में सहायक ही होगा।


मंसूर अली हाश्मी

Monday, August 25, 2008

भद्रता/Gentility




i 16 जून, 2008  #

थप-थप-थप,
कन्क्रीट की आफ़िस पे लगे शीशे के बंद दरवाज़े को थपथपाने की आवाज़,
साधारण वेश में एक परेशान बालक की छबि,
हिलते हुए होंठ, पुनः थप-थप
उंगली का इशारा पाकर, पट खोल, केवल सिर ही अन्दर करने का साहस
जुटाटे हुएकुछ बोलने की असफल कोशिश !
इससे पहले कि शब्द उसकी जिव्हा का या जिव्हा उसके शब्दो का साथ दे, मैंने , अपने हाथ में बची हुई, संतरे की दौनो फ़ाँके उस बालक के हाथ पर रख दी!
(
सचमुच, मेरे पास उस वक्त 'छुटटा' कुछ नही था)
आश्चर्य मिश्रित दर्द का भाव उसके चेहरे पर आकर चला गया।
"
कस्तूरी, बाबूजी... कस्तूरी लोगे ?"
उपर से नीचे तक उस बालक को देखते हुए
,
शब्द खर्च करने की भी आवश्यक्ता न समझते हुए
, इन्कार में सिर  हिला दिया।
चेहरे की मायूसी और गहरी हो गयी,
दरवाज़ा धीरे से बंद हो गया।

बंद होते दरवाज़े में से एक तीव्र मगर मधुर सुगंध कमरे में घुस आईपूरा कमरा महक उठा,  मन हर्ष से भर गया।
यकायक कस्तूरी और उस बालक का विचार आया,
बाहर लपका, सुनसान सड़क पर कोई न था।

सामने वृक्ष तले, सदा बैठे रहने वाला बूढ़ा बिखारी
संतरे की दो फ़ाँको को उलट-पलट कर आश्चर्य से देख रहा था।

शायद पहली बार मिली हुई ऐसी भीख को,
और मैं ग्लानिवश!  फिर ऑफिस के कमरे में बंद हो गया।


कस्तूरी की महक तो क्षणे-क्षणे क्षीण हो लुप्त हो गई,
मगर उस बालक की याद की महक अब भी मस्तिष्क में बसी हुई है
,
जिसने मेरी दी हुई  सन्तरे की फ़ांके सिर्फ़ इसलिये स्वीकार कर ली

कि मेरी दान-वीरता का भ्रम न टूटे
या अपने हाथ पर सह्सा रखदी गई दया की भीख इसलिये वापस नही की कि सुसज्ज कक्ष में बैठा हुआ तथाकथित भद्र-पुरुष ख़ुद को
अपमानित मह्सूस न करे!
भद्र तो वह था, जो ज़रूरतमंद तो था... भिखारी नही,
ख़ुश्बू बेचना चाह्ता था, ठगना नही।

'
ठगा'  तो मैं फिर भी गया, अपने ही विवेक से,
जिस विवेक ने मुझे तथाकथित बुद्धिजीवी (?) की श्रेणी में पहुंचा रखा है। 

परन्तु मैं बहुत पीछे रह गया हूँ उस बालक से जो ख़ुश्बू का झोंका बन कर
आया और मुझसे बहुत आगे निकल गया है!

मन्सूर अली हाशमी