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Saturday, June 25, 2011

Illusion !


उसको मैं कैसा समझता था, वो कैसा निकला !

जितना बाहर था वो उतना ही अन्दर निकला,
जो  कलंदर नज़र आता था, सिकंदर निकला.

शांत एसा था कि  तल्लीन 'ऋषि' हो जैसे, 
और  बिफरा तो 'सुनामी' सा समंदर निकला.

यूं 'उछल-कूद' की आदत है सदा से उसमे, 
उसके पुरखे को जो खोजा तो वो बन्दर निकला.

'साब' बाहर है, मुलाकात नहीं हो सकती,
'Raid'  आई तो बिचारा वही घर पर निकला.

उम्र  भर जिसको संभाले रखा हीरे की तरह,
वक्ते मुश्किल जो निकाला तो वो पत्थर निकला.



हम 'अनुबोम्ब' तो रखते ही है, फौड़ेंगे उसे,
'भिनभिनाता हुआ, इक पास से 'मच्छर' निकला. 



mansoor ali hashmi 

Saturday, March 26, 2011

कुंबा है मेरा देश, मैं सरदार इसका हूँ!


कुंबा है मेरा देश, मैं सरदार इसका हूँ!

घोटाला हो गया है? मुझे कुछ पता नही !
पैमाना भर गया है? मुझे कुछ पता नही !

लाखो करोड़ कम है? कुछ और लिजीयेगा!
खाली हुआ खज़ाना ? मुझे कुछ पता नही !

कुछ 'LEAK'  हो गया है,कुछ और 'LEAK' होगा.
टपके गा कौन अबकी  ? मुझे कुछ पता नही !

अब 'चि' भी बोल उठे है, "उत्तर नहीं पसंद",
'उसका निजी ख्याल' , मुझे कुछ पता नही ! 

'बाबा' को दिख रहा है; 'काला' क्यूँ हर तरफ?
'बा' से करो सवाल, मुझे कुछ पता नही !



अब 'जेटली' की केटली में आ रहा उबाल,
"मौक़ा परस्ती" क्या है? मुझे कुछ पता नही! 

मंसूर अली  हाश्मी 

Sunday, August 29, 2010

'न' होने का होना.....!

'न' होने का होना.....!

'कुछ नहीं' थे ये तसल्ली फिर भी है,
'शून्य' से संसार की रचना हुई.

कहकशां  दर  कहकशां खुलते गए,
क्या अजब ये देखिये घटना हुई.

आदमी- सूरज बना, औरत- ज़मीं,
इस तरह से आमदे 'चंदा' हुई.

सिलसिला दर सिलसिला ये ज़िन्दगी,
ज़िन्दगी  की  चाह में पुख्ता  हुई.
 
बढ़ गयी आबादी, ताकत भी बढ़ी,
फिर खुराफातें यहाँ बरपा हुई.

रंगों, मज़हब, नस्ल के झगडे हुए,
ज़हर फैला, खूँ की बरखा हुई.

फिर तलाशे ज़िन्दगी तारो में है!
'ज़िन्दगी', लो ! एक मृग-तृष्णा हुई.

एक सपने की हकीक़त ये रही,
इक हकीक़त आज फिर सपना हुई.

'कुछ नहीं थे' ये तसल्ली फिर भी है..........
mansoorali hashmi