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Saturday, June 25, 2011

Illusion !


उसको मैं कैसा समझता था, वो कैसा निकला !

जितना बाहर था वो उतना ही अन्दर निकला,
जो  कलंदर नज़र आता था, सिकंदर निकला.

शांत एसा था कि  तल्लीन 'ऋषि' हो जैसे, 
और  बिफरा तो 'सुनामी' सा समंदर निकला.

यूं 'उछल-कूद' की आदत है सदा से उसमे, 
उसके पुरखे को जो खोजा तो वो बन्दर निकला.

'साब' बाहर है, मुलाकात नहीं हो सकती,
'Raid'  आई तो बिचारा वही घर पर निकला.

उम्र  भर जिसको संभाले रखा हीरे की तरह,
वक्ते मुश्किल जो निकाला तो वो पत्थर निकला.



हम 'अनुबोम्ब' तो रखते ही है, फौड़ेंगे उसे,
'भिनभिनाता हुआ, इक पास से 'मच्छर' निकला. 



mansoor ali hashmi 

Saturday, August 28, 2010

क्या करे!


क्या करे!

कभी तूने किसी से कुछ करी क्या 'बेवफाई'  है?
न करना ज़िक्र इसका, इसको कहते 'बेहयाई'  है.

कोई लिख देगा 'नोवेल' या बना देगा फिलम कोई!
'छिनाली' करके भी लोगों ने याँ दौलत कमाई है!!

फिलम की तरह क्यों रीवर्स चलने लग गयी गाड़ी,
हनीमून, बाद में शादी, और आखिर में सगाई है.

 'गुटरगूँ'   करने से पहले समझ ले गौत्र की गुत्थी,
सुना है 'खाप' वालो ने "बड़ी सख्ती" दिखाई है.

अगर बच जाये बेलन से तो बे परवाह मत होना, 
अभी तो हाथ में झाड़ा है,करछी है, कढ़ाई है.

"उसे"  कंधार जा के छोड़ आये, जान तो छूटी!
"यहाँ बैठा" तो बनता जा रहा अब घर जमाई है!!

जो प्रजा है, वही राजा करेगा कौन अब इन्साफ? 
यह 'नक्सलवाद' है या ख़ुद से ख़ुद की ही लड़ाई है??
-mansoorali hashmi