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Saturday, March 5, 2011

सत्यम, शिवम्, सुन्दरम !


सत्यम, शिवम्, सुन्दरम ! 

चारो तरफ गड़बड़म ,
हर एक दिशा में भरम.

शासक है मनमोहनम ,
सत्ता बड़ी प्रियत्तम .

'मोदीललित' अद्रश्यम,
लांछित कई 'थोमसम'.  

संस्थाए 'क्वात्रोचियम',
'अफ़साने'* सब दफनम.     *[जो अंजाम तक न पहुँच सके]

'करमापयी' शरणम,   
'माल' भयो गच्छ्म.

कानून जब बेशरम, 
सोच भयी नक्सलम.

झूठम, कुरूप, रावणम,
सत्यम,शिवम् सुन्दरम.

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राजेंद्र  स्वर्णकार जी के स्वर में...








-मंसूर अली हाश्मी


Thursday, May 13, 2010

शर्म हमको मगर नही आती....


शर्म हमको मगर नही आती....

फटाफट इसमें* मिल जती है शोहरत,      [*T-20] 
जो हारे भी तो खुल जाती है किस्मत.

हाँ ! मैंने दी है थाने  पर भी रिश्वत,
न देता, कैसे बनता 'पास पोरट' ?

हो रिश्वतखोर या आतंकी,नक्सल,
वे दुश्मन देश के है यह हकीक़त.

''गयाराम'',  आ गया सत्ता की ख़ातिर,
है 'खंडित' 'झाड़' की हर शाख़ आह़त.

बदलते जा रहे पैमाने* देखो,            [*मापदंड]
उसे अपनाया जिसमे है सहूलत*.       [*सुविधा]    

जो चित में जीते, पट में भी न हारे,
इसी का नाम है यारो सियासत.

'यथा' अब 'स्थिति' भाती है क्योंकर? 
कभी सुनते थे हरकत में है बरकत.

मोहब्बत का सबक उनसे* भी सीखा,     [*शाहजहाँ]
दिलो में लेके जो* आए थे नफ़रत.         [*मुग़ल] 

है दुश्मन घर में, बाहर भी हमारे,
न संभले गर तो हाथ आयेगी वहशत.

रखा था 'गुप्तता' की जिनको ख़ातिर,
उसी ने बेच डाली है अमानत.
 
गरीबी की अगर रेखा न होती,
चमकती कैसे नेताओं की किस्मत.

वो PC हो मोबाइल या के टी वी,
नहीं मिलती है अब आँखों को राहत.

फसानो में है गुम, माज़ी के क्यों हम?
ज़माना ले रहा है देखो करवट.

फअल* शैतानी है जबकि हमारे,        [*कर्म] 
पढ़े जाते है किस पर हम ये लअनत !

ब्लोगिंग पर ही कुछ बकवास कर ले,
जो चल निकले तो मिल जाएगी शोहरत. 
mansoorali hashmi

Friday, February 19, 2010

आखिर में

शब्दो से माला-माल कर रहे  अजित जी, की आज [१८-०२-१०] की ''शब्दों का सफ़र'' पर  प्रेरणा दायक पोस्ट से प्रभावित:-
 


माल बनता है मल ही आखिर में,
'आज' बनता है 'कल'* ही आखिर में.

धन पशु है; पशु भी धन ही है,
चल भी होता अचल ही आखिर मे.
 
महंगी होती गई अगर ऊर्जा,
जीतेगी सायकल ही  आखिर में.

नेता कितना बड़ा भी हो लेकिन,
जीत जाता है दल ही आखिर में.

गर्म होकर फरार हो ले भले,
वाष्प  होता है जल ही आखिर में.

जीतता सा लगे भले हमको,
हार जाता है छल ही आखिर में.

बाजपाई सा अब कहाँ ढूंदे,
सबसे अव्वल,अटल ही आखिर में.

दिल पे पत्थर रखे कोई कब तक,
नैना होते सजल ही आखिर में.

''मालखाना'' है कोतवाली में,
जो बचेगा वो ''खल'' है आखिर में.

सर्द रिश्तो में प्यार हो मौजूद,
बर्फ जाती पिघल ही आखिर में,


mansoorali hashmi

Friday, January 1, 2010

लेखा-जोखा

 लेखा-जोखा
फिर नए साल ने दस्तक दी है,
सर्द झोंको ने भी कसकर दी है.

अपनी तकदीर हमें लिखना है,
कोरे सफ्हात की पुस्तक दी है.

बा मुरादों ने दुआए दी तो,
ना मुरादों ने छक कर पी है.

'तेल-आंगन' से न निकला फिर भी,
 हाद्सातों ने तो  करवट ली है.

बर्फ की तरह पिघलती क़द्रें,*
संस्कारों से जो नफरत की है.

ना  मुरादों की खुदा ख़ैर करे,
बा मुरादों ने तो बरकत ली है.

'शिब्बू, 'सौ रन' भी बना ही लेंगे,
कसमें खाने की जो किस्मत ली है.

गर्म* को सर्द बनाने वाले,
'कोप'* भाजन हुए, मोहलत ली है.
telangana 

कद्रें= मूल्य, गर्म=ग्लोबल वार्मिंग, कोप= कोपनहेगन.

-मंसूर अली हाशमी