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Friday, September 12, 2008

Blogging-2

ब्लागियात-2
कोई इसको भडास कहता है,
कोई 'मुखवास' इसको कहता है,
है किसी के लिए विचार की बात,
कोई बकवास इसको  कहता है.


चोट दिल पर लगी ब्लॉग बना,
खोट से मन दुखा ब्लॉग बना,
ज्योत की लौ बढ़ी ब्लॉग बना,
मौत की 'आगही' ! ब्लॉग बना.


पहले बन-बन के मन में मिटता था,
अब तो बनने से पहले छपता है,
जाल [net] फैला हुआ फिजाओ में,
जो हर-एक सोच पर झपट ता है.


दिल के छालो का नाम भी है ब्लॉग,
मन के जालो का नाम भी है ब्लॉग,
उजले-काले का काम भी है ब्लॉग,
सच पे तालो का नाम भी है ब्लॉग.


सुबह दम शबनमी ब्लॉग बना,
दिन चढा टेक्नीकल ब्लॉग बना, 
सुरमई शाम में शराबी सा,
आलसी, रात में ब्लॉग बना.

-मंसूर अली हाश्मी

Blogging -1

ब्लागियात -१
आत्म-मंथन टाइटल में मैंने ब्लॉग को हलके-फुल्के परिभाषित किया था. थोड़ा विचार किया तो कई पहलू सामने आए. क्यों न हम इस विचार-धारा को ब्लागियात कह कर पुकारे ? यह भी एक द्रष्टिकोण बन चुका है अपनी बात ' जस की तस्' कह देने का. एक नयी शब्दावली भी जन्म ले रही है, blogism की ...ब्लागियात की!
ब्लॉग में प्रयुक्त अक्षर 'ब', 'ल' और 'ग' से छेड़-छाड़ की है....जस का तस् लिखे देता हूँ  :-

बे-लाग हो ब्लॉग तो लोगों को लगेगा,
उतरेगा यूं गले की निगलते ही बनेगा,
बातें गुलाब की हो या गल-बहियों की रातें,
ग़ालिब भी हमें एक ब्लॉगर ही लगेगा।


कहाँ-कहाँ पे छुपा है ब्लॉग ढूँदेंगे,
जहाँ-जहाँ भी छपा है ब्लॉग ढूँदेंगे,
महक की सिम्त बढेंगे गुलाब ढूँदेंगे,
छुपे हुए कई रुस्तम जनाब ढूँदेंगे !


किसी ने ढूँद लिया इसको अपने ही दिल में,
किसी को तिल में मिला है किसी को महफ़िल में,
किसी ने पहाड़ भी खोदा तो कुछ नही पाया ,
किसी ने पा लिया बस एक छोटे से बिल में।


किसी को जड़ में मिला है किसी को हलचल में,
किसी ने नैन में पाया किसी ने डिम्पल में,
किसी को जल में मिला है किसी को जंगल में ,
किसी को युग भी लगा कोई पा गया पल में।

-मंसूर अली हाश्मी

Tuesday, August 5, 2008

Blogging /Aatm-manthan

ब्लॉगिंग के क्षेत्र में इस पहली रचना 'आत्ममंथन' से क़दम रखा है।  अपने विचारों अनुभवों को अपने पाठकों साथी ब्लॉगरो से शेअर करने के लिये। ब्लॉग का टाइटल भी "आत्ममंथन" ही रखा है। पता नहीं यह सिलसिला कब तक जारी रख पाउँगा। प्रस्तुत है पहली ग़ज़ल :-

आत्ममंथन 

"उधार का ख़्याल"* है?    *Borrowed thought
नगद तेरा हिसाब कर्।

भले हो बात बे-तुकी,
छपा दे तू ब्लाग पर्।

समझ न पाए गर कोई,
सवाल कर,जवाब भर्।

न तर्क कर वितर्क कर,
जो लिख दिया किताब कर्।

न मिल सके क्मेन्टस तो,
तू खुद से दस्तयाब* कर्।           *उपलब्ध

तू छप के क्युं छुपा रहे,
न 'हाशमी' हिजाब* कर्।            *पर्दा


-मन्सूरअली हाशमी