Monday, February 6, 2012

'मुंह की खाने' की बात करते हो?


'मुंह की खाने' की बात करते हो?  
['उड़न तश्तरी' की आज की पोस्ट.....आलस्य का साम्राज्य और उसके बाशिन्दे   ...से प्रभावित.]
 
लिख-लिखाने की बात करते हो,
किस ज़माने की बात करते हो?

'कट' करो 'पेस्ट' उसको कर डालो,
स्याही-कागज़ ख़राब करते हो ?

काम ज़्यादा है, वक़्त की किल्लत,
क्यों पढ़ाने की बात करते हो?

अपनी-अपनी ख़बर तो सब को है,
आईना तुम क्यों साफ़ करते हो?

'चुक' कहीं तो नहीं गया है, 'ज्ञान',
आज़माने की बात करते हो !

'सोच' पर इक 'जुमूद'* सा तारी,        *[ जम जाना]
'उड़'* के जाने  की बात करते हो?      *[विचारो की उड़न तश्तरी में] 

हो 'विवादास्पद' ही लेख कोई,
गर 'कमाने'* की बात करते हो.            *[चटके बढ़वा कर]  


-Mansoor ali Hashmi

5 comments:

विष्णु बैरागी said...

जो बात करते हैं जमाने भर की
तुम उन्‍हीं की बात करते हो

रह जाती है उनसे जो अधूरी
पूरी वही तुम बात करते हो

न मेरी है न उनकी न तुम्‍हारी
खुदा ही जाने किसकी बात करते हो

दिनेशराय द्विवेदी said...

वाह! मंसूर भाई, आप का लिखा पढ़ पढ़ कर मुझे न जाने क्यों नजीर अकबराबादी की याद आने लगती है।

ishwar khandeliya said...

न मेरी है न उनकी न तुम्‍हारी
खुदा ही जाने किसकी बात करते हो
kya bat hai bhai sahab
kanha padhne ko milta hai aisha

अजित वडनेरकर said...

अपनी-अपनी ख़बर तो सब को है,
आईना तुम क्यों साफ़ करते हो?

हासिले ग़ज़ल शेर
वाह ....वाक़ई द्विवेदी जी की बात में दम है...

ghughutibasuti said...

आईने तो ढका ही रहे तो अच्छा.
'कट' करो 'पेस्ट' उसको कर डालो,
यह बात जमती तो बहुत है किन्तु हिन्दी में इतना लिखा नेट पर मिलता कहाँ है?
बहुत ही बढ़िया लिखा है.
घुघूतीबासूती