Friday, July 15, 2011

Terrorism

दहशत 

[इस गीत की तर्ज़ पर यह रचना पढ़े:- 
"आना है तो आ राह में कुछ फेर नही है,
 भगवान् के घर देर है,  अंधेर नही है."]

फिर आग ये अब किसने लगाई है चमन में,
गद्दार छुपे बैठे है अपने ही वतन में.

दहशत जो ये फैलाई तो तुम भी न बचोगे,
क्यों आग लगाए कोई अपने ही बदन में.

नफरत से तो हासिल कभी जन्नत नहीं होगी,
क्यूँ उम्र गुज़ारे है तू दोज़ख सी जलन में.

ज़ख्मो को बयानों से तो भरना नहीं मुमकिन,
तीरों से इज़ाफा ही तो होता है चुभन में.

'वो' क़त्ल भी करके है क्यूँ रहमत के तलबगार,
हम ढूँढ़ते फिरते है, हर इक 'हल' को अमन में. 

--mansoor ali hashmi 

8 comments:

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

जब तक वतन में गद्दार बैठे हैं. ऐसे दुःख झेलते रहेंगे.
-
आपकी रचना सशक्त है.

Mansoor ali Hashmi said...

@ Ajit Wadnerkar said:

बहुत खूब हाश्मी साब।
आपके जज्बे की क़द्र है

अजित
http://shabdavali.blogspot.com/

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप इतना बढ़िया लिखते हैं कि उस पर क्या कहा जाए, ये समझ ही नहीं आता। इतना मौजूँ, इतना सुंदर!

उम्मतें said...

जीना हराम कर दिया है इन लोगों ने !

'नफरत से तो हासिल कभी जन्नत नहीं होगी,
क्यूँ उम्र गुज़ारे है तू दोज़ख सी जलन में.'

खास पसंद आया !

virendra sharma said...

मियाँ मंसूर अली साहब तेइसवां जोड़ा ही क्रोमोसोमों का सेक्स क्रोमोसोम्स है .एन डी तिवारी के पैर के निशाँ लो .वह भी संतानों से मिलतें हैं .बाईस जोड़े सोमातो -सोम्स -हैं देह से सम्बन्ध रखतें हैं .मर्द एक्स -वाई शख्शियत है और औरत एक्स -एक्स .लड़का होगा या लडकी इसमें खातूनों का कोई हाथ नहीं मर्द की तरफ से एक्स या वाई गुणसूत्र (क्रोमोसोम )जाकर फिमेल एग से इश्क करता है मिलन मनाता है निषेचित होता है .तब पीड़ा होती है लड़की या लड़का .और हाँ मर्द भी बाँझ होतें हैं तमगा औरत पर लगाना गुनाह है .कभी स्पर्म काउंट कम कभी मुरदार शुक्राणु .ताना कशी औरत झेले कुसूर मर्दुए का ,करे जुम्मा पिटे मुल्ला .
बहुत खूब मंसूर अली साहब !
'वो' कत्ल भी करके क्यों रहमत के तलब -गार ,
हम ढूंढते फिरते हैं हर एक हल को अमन में .
कसाब की रहमत की भीख २८ नंबर है .यानी आतंकियों के लिए भी वही नियम हैं इस देश में ..-डॉ .नन्द लाल मेहता वागीश ,सहभाव :वीरुभाई .
खामोश अदालत ज़ारी है ,दिल्ली का संकेत यही है ,
वाणी पर तो लगी है बंदिश ,अब साँसों की बारी है .
खामोश अदालत ज़ारी है .
हाथ में जिसके है सत्ता वह लोकतंत्र पर भारी है ,
गई सयानाप चूल्हे में .बस चूहा एक पंसारी है .
कैसा जनमत किसका अनशन ,हरकत में जब शासन ,
संधि पत्र है एक हाथ में दूजे हाथ कटारी है .
खामोश अदालत ज़ारी है .

विष्णु बैरागी said...

दिनेशजी की बात को ही मेरी भी बात मानिएगा। मैं कुछ भी लिख दूँ, आपके लिखे को छू भी नहीं सकेगा। ईश्‍वर आपको मेरी उम्र दे और आप लगातर लिखते रहें।

दिनेशराय द्विवेदी said...

वीरूभाई की टिप्पणी के क्या कहने!
वीरू भाई मैं तो फिदा हो गया इस पे।

अभिषेक मिश्र said...

शायद आग लगाने वाले (दोनों तरफ के) कभी बेनकाब हों.