Monday, February 28, 2011

....कि मैं बेज़ार बैठा हूँ!



कुलदीप गुप्ताजी  की रचना ...."कविता की समाधि"    http://kuldipgupta.blogspot.com/  से प्रेरित....

[तुम वह जो टीला देख रहे हो
वह कविता की समाधि है।
कविता जो कभी वेदनाओं का मूर्त रुप हुआ करती थी
उपभोक्तावाद की संवेदनहीनता ने
उसकी हत्या कर दी है।]

.....कि मैं बेज़ार बैठा हूँ!

कविता की  समाधि का जिसे टीला कहा तुमने,
उसी टीले की  इक जानिब पे मैं भी आ के बैठा हूँ,
मुझे तो ये 'समाधी' एक 'कलमाडी' सी लगती है,
 कईं घोटाले इसमें दफ्न, मैं बेज़ार बैठा हूँ.

कई 'आदर्शी टॉवर' तो, 'बड़े स्पेक्ट्रम' इसमें,
छिपे बैठे कई 'अफज़ल-असीमानंद' है इसमें,
कई 'राजा' की गद्दी है, कई 'बाबा' के आसन है,
किसी 'lady' का मोबाईल किसी मुन्नी  का  गायन है.

उछलता sex है और sense मे आई गिरावट है,
न तुम संवेदना धूँदो, बनावट ही बनावट है,
इरादों मे बुलंदी है न जज़बो मे हरारत है,     
न सच्चा है कोई मजनूं  न लैला मे शराफत है.

विवाह भी एक प्रोफेशन ही बनता जा रहा है अब,
लगा क्या है? मिला कितना? ये सोचा जा रहा है अब,
'उपजती' नारी है या नर ये जांचा जा रहा है अब,
पसंदीदा नहीं गर शै  तो बेचा जा रहा है अब.

कवि हूँ  मैं न शायर हूँ, मुफ़त छपता ब्लॉगर हूँ,
न रचना से मैरी संगीतो- सूरत ही उभरती है,
जो गिर्दो -पेश मे दिखता वही लिख मारता हूँ मैं,
संवेदनहीन टीला बनके मैं ख़ुद पे ही बैठा हूँ.
   
mansoorali hashmi

7 comments:

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

विवाह भी एक प्रोफेशन ही बनता जा रहा है अब,
लगा क्या है? मिला कितना? ये सोचा जा रहा है अब,
'उपजती' नारी है या नर ये जांचा जा रहा है अब,
पसंदीदा नहीं गर शै तो बेचा जा रहा है अब....

aapke sookshm anubhav se sab kuchh kaid hota ja raha hai.

नीरज गोस्वामी said...

कवि हूँ मैं न शायर हूँ, मुफ़त छपता ब्लॉगर हूँ,
न रचना से मैरी संगीतो- सूरत ही उभरती है,
जो गिर्दो -पेश मे दिखता वही लिख मारता हूँ मैं,
संवेदनहीन टीला बनके मैं ख़ुद पे ही बैठा हूँ.

ऐसा लगता है जैसे मेरी ही बात लिख दी गयी है...कमाल की रचना...

नीरज

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप की रचनाओं में सामाजिक यथार्थ बहुत सहज तरीके से आता है।

वीना श्रीवास्तव said...

कवि हूँ मैं न शायर हूँ, मुफ़त छपता ब्लॉगर हूँ,
न रचना से मैरी संगीतो- सूरत ही उभरती है,
जो गिर्दो -पेश मे दिखता वही लिख मारता हूँ मैं,
संवेदनहीन टीला बनके मैं ख़ुद पे ही बैठा हूँ.
बहुत सुंदर रचना...

उम्मतें said...

@ सबसे पहले कुलदीप गुप्त जी पर...

"उपभोक्तावाद की संवेदनहीनता" ? द्वारा क़त्ल की गई कविताओं का टीला उर्फ समाधि 'ह्रदय' से बाहर क्यों कर दिखने लगा / लगी ?

"कविता जो कभी वेदनाओं का मूर्त रूप हुआ करती थी" ?

केवल वेदनायें कविता के हिस्से में क्यों आती हैं ? अन्य अनुभूतियां ...प्रेम...खुशियां वगैरह कविता के दायरे से बाहर हैं क्या ?


@ मंसूर अली साहब ,

कविता के दूसरे आयाम ...मसलन आक्रोश , क्षोभ ,व्यंग ,हास्य ,सम्बन्ध, प्रेम और दीगर ज़ज्बात आपने पकडे हैं ! कविता को मुकम्मल शक्ल दी है ! उसे वेदना के दायरे से आज़ाद किया है सो बहुत बहुत मुबारकबाद !

Anonymous said...

@Kuldip Gupta:-

धन्यवाद
मन्सूर साहब्॥ एक कालमाडी हो तो उससे निबटा भी जाये। यहां तो सारे कालमाडी हो गये हैं और चौकीदार व्यक्तिगत इमानदारी की दुहाई दे रहा है और सो रहा है।
Kuldip Gupta
BLOGS AT: http://kuldipgupta.blogspot.com/

Mansoor ali Hashmi said...

शुक्रिया अली साहब, आपका विश्लेषण महत्वपूर्ण है. आपकी दूर बीन नज़र ही एसा कुछ देख पाती है, वर्ना मैं तो काफिया तराशी ही करता हूँ!

Regards.
--mansoorali hashmi