Wednesday, April 21, 2010

क्यों?/Why?


क्यों?


ब्लॉगर भी  ज़हर फैला रहा है!
जो बोया है वो काटा जा रहा है.

धरम-मज़हब का धारण नाम करके ,
भले लोगों को क्यों भरमा रहा है.

अदावत, दुश्मनी माज़ी की बाते,
इसे फिर आज क्यों दोहरा रहा है.

सहिष्णु बन भलाई है इसी में,
क्रोधी ख़ुद को ही झुलसा रहा है.

हिफाज़त कर वतन की ख़ैर इसमें,
तू बन के बम, क्यों फूटा जा रहा है.

न  भगवा ही बुरा,न सब्ज़-ओ-अहमर*,
ये रंगों में क्यों बाँटा जा रहा है.

बड़ा अल्लाह , कहे भगवान्, कोई;
क्यूँ इक को दो बनाया जा रहा है. 

मिले तो दिल, खिले तो फूल जैसे,
मैरा तो बस यही अरमाँ रहा है.

*अहमर=लाल 
-मंसूर अली हाश्मी 

15 comments:

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

बड़ा अल्लाह , कहे भगवान्, कोई;
क्यूँ इक को दो बनाया जा रहा है.

मिले तो दिल, खिले तो फूल जैसे,
मैरा तो बस यही अरमाँ रहा है.

.....बस यही बात समझने की है. मेरे दिल की बात कही आपने. शुक्रिया. ग़ज़ल बहुत सुन्दर है.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

बड़ा अल्लाह , कहे भगवान्, कोई;
क्यूँ इक को दो बनाया जा रहा है.

मिले तो दिल, खिले तो फूल जैसे,
मैरा तो बस यही अरमाँ रहा है.

.....बस यही बात समझने की है. मेरे दिल की बात कही आपने. शुक्रिया. ग़ज़ल बहुत सुन्दर है.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

बड़ा अल्लाह , कहे भगवान्, कोई;
क्यूँ इक को दो बनाया जा रहा है.

मिले तो दिल, खिले तो फूल जैसे,
मैरा तो बस यही अरमाँ रहा है.

.....बस यही बात समझने की है. मेरे दिल की बात कही आपने. शुक्रिया. ग़ज़ल बहुत सुन्दर है.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

बड़ा अल्लाह , कहे भगवान्, कोई;
क्यूँ इक को दो बनाया जा रहा है.

मिले तो दिल, खिले तो फूल जैसे,
मैरा तो बस यही अरमाँ रहा है.

.....बस यही बात समझने की है. मेरे दिल की बात कही आपने. शुक्रिया. ग़ज़ल बहुत सुन्दर है.

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

behtareen !

Anonymous said...

mansoorbhai
dukaan band kyun hai
call karen 9827340835

नीरज गोस्वामी said...

मंसूर भाई इस नायाब ग़ज़ल के लिए ढेरों दाद कबूल करें...काश हम आपकी कही बातों को अमल में लायें तो ये ज़िन्दगी कितनी खुशनुमा हो जाये...
वाह वा...
नीरज

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

भगवान सबको सद्बुद्धी दे. बस यही एक प्रार्थना.

दिनेशराय द्विवेदी said...

इस भावना का कोई सानी नहीं। बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए।

संगीता पुरी said...

बहुत अच्‍छी भावना से लिखी गयी रचना !!

अजित वडनेरकर said...

बहुत खूब।
इस भावना के साथ हम भी है। आमीन।
अहमर....इससे अब तक नावाकिफ़ था। शुक्रिया, इनसे परिचित कराने के लिए।

Rajeev Nandan Dwivedi kahdoji said...

सुभानल्लाह आपने तो दिल ही जीत लिया, बहुत खूब.
अति उत्तम विचार हैं आपके, आज ब्लॉग जगत को आपकी इसी कविता रुपी मरहम की अति आवश्यकता है.

डॉ० डंडा लखनवी said...

आधुनिक युग की राजनीति की मेरर इमेज को भूतकाल के धर्मो में देखा जा सकता है। हमारा सब कुछ श्रेष्ठ और दूसरों का सब कुछ खराब है ऐसा मानना हमारा भ्रम है। क्षेत्रीयता और धार्मिकता संबंधी पुरानी मान्यताएं भूमंडलीकरण के दबाव के कारण सब कहीं चरामरा रही है। भारत उससें अछूता नहीं है। अब हमें धर्मो को मानवतावाद की कसौटी पर कसना ही होगा। आपके मानवादी निर्मल विचारों हेतु- साधुवाद!
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी

Satish Saxena said...

अच्छा लिखते हैं आप !शुभकामनायें !

sameer said...

न भगवा ही बुरा,न सब्ज़-ओ-अहमर*,
ये रंगों में क्यों बाँटा जा रहा है.


बड़ा अल्लाह , कहे भगवान्, कोई;
क्यूँ इक को दो बनाया जा रहा है.
bahut sahi bateen kahii hain aap ne.