Monday, April 12, 2010

नि:शब्द



नि:शब्द!

[अजित वडनेरकर जी  की अ-कविता रूपी कविताओं से किंक्रतव्यविमूढ़ 
 होकर............]

प्रयोग करके शब्दों के ब्रह्मास्त्र चल दिये,
अर्थो का क़र्ज़ लाद के अब चल रहे है हम.

शब्दों के कारोबार में कंगाल हो गए,
अर्थो को बेच-बेच के अब पल रहे है हम.

शाश्वत है शब्द, ब्रह्म भी, नश्वर नहीं मगर,
अपनी ही आस्थाओं को अब छल रहे है हम.

तारीकीयों से बचने को काफी चिराग़ था,
हरसूँ है जब चरागां तो अब जल रहे है हम. 

तामीर होना टूटना सदियों का सिलसिला,
बस मूक से गवाह ही हर पल रहे है हम.

हम प्रगति के पथ पे है, ऊंची उड़ान पर,
कद्रों* की बात कीजे तो अब ढल रहे है हम.

*मूल्य [values]
mansoorali hashmi

5 comments:

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

हम प्रगति के पथ पे है, ऊंची उड़ान पर,
कद्रों की बात कीजे तो अब ढल रहे है हम.

----सुन्दर. बहुत सही चित्रण किया है.

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत सुंदर जी!

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बहुत बढ़िया कलाम है ! मेरा सलाम कबूल फरमाईयेगा !

नीरज गोस्वामी said...

तारीकीयों से बचने को काफी चिराग़ था,
हरसूँ है जब चरागां तो अब जल रहे है हम.

भाई जान सिर्फ एक ये शेर ही शेर ही नहीं इस ग़ज़ल के सारे शेर बब्बर शेर हैं...मेरी दिली दाद कबूल करें...वाह...
नीरज

दिव्य नर्मदा divya narmada said...

waah...waah...