Friday, April 10, 2009

S H O E S




उड़ती हुई गाली 






निशाना चूक कर भी जीत जाना,
अजब अंदाज़ है तेरा ज़माना.

चलन वैसे रहा है ये पुराना,
मसल तब ही बनी है ''जूते खाना''.

बढ़ी है बात अब शब्दों से आगे,
अरे Sir ! अपने सिर को तो बचाना.

कभी थे ताज ज़ीनत म्यूजियम की,
अभी जूतों का भी देखा सजाना. 

कभी इज्ज़त से पहनाते थे जिसको#,
बढ़ी रफ़्तार तो सीखा उडाना.

शरम से पानी हो जाते थे पहले,
अभी तो हमने देखा मुस्कुराना.

# जूतों का हार बना कर

-मंसूर अली हाशमी

8 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत खूब!
जो शौक हो ताज का तो
पहले जूते खाना सीक लो

drdhabhai said...

bahut khoob

Anil Pusadkar said...

वाह उस्ताद वाह।दिल जीत लिया आपने॥

संगीता पुरी said...

बहुत बढिया लिखा ...

Prakash Badal said...

वाह मंसूर जी वाह!

Anonymous said...

joote khaanaa
khakar bataanaa
kyon maare kah paanaa
kah kah lajaanaa
fir kahkahe lagaanaa
aaj aam baat hai
aji dekhiyega
log thukenge muh par
aur beshrm kahenge
security badhaanaa

'' अन्योनास्ति " { ANYONAASTI } / :: कबीरा :: said...

यहाँ भी गैरहाजिर

Udan Tashtari said...

शरम से पानी हो जाते थे पहले,
अभी तो हमने देखा मुस्कुराना.

-जमाना आ रहा है जब न पड़े तो रोयेंगे ये!!